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हमारे ये दिन यों ही गये जी ॥ टेक ॥
कर न लियो कछु जप तप जी, कछु जप तप, बहु पाप बिसाहे नये जी ॥ हमारे. ॥ १ ॥
तन धन ही निज मान रहे, निज मान रहे, कबहूँ न उदास भये जी ॥ हमारे. ॥ २ ॥
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'द्यानत' जे करि हैं करुना, करि हैं करुना, तेइ जीव लेखेमें लये जी ॥ हमारे. ॥ ३ ॥
ओह ! हमारा अब तक का समय निरर्थक हो गया।
हमने कुछ भी जप-तप नहीं किया। कुछ जप-तप किया भी तो खूब नएनए पाप ही उपार्जित किए हैं।
तन-धन को ही अपना मानते रहे और उनको अपना मानकर कभी उनसे उदास नहीं हुए, विरक्त नहीं हुए।
द्यानतराय कहते हैं कि जिन्होंने (जिन जीवों ने) करुणा धारण की है वे ही जीव आपने अपने लेने में (गणना में) लिये हैं अर्थात् आपने उन्हीं पर ध्यान दिया है।
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द्यानत भजन सौरभ