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( २४७ ) राग आसावरी
सोग न कीजे बावरे ! मरें पीतम लोग ॥ टेक ॥ जगत जीव जलबुदबुदा, नदि नाव सँजोग ||
आदि अन्तको संग नहिं, यह मिलन वियोग । कई बार सबसों भयो, सनबंध मनोग ॥ सोग. ॥ १ ॥
कोट वरष लौं रोइये, न मिलै वह जोग । देखें जानें सब सुनैं, यह तत्र जमभोग ॥ सोग. ॥ २ ॥
हरिहर ब्रह्मासे खये, तू किनमें टोग ! 'द्यानत' भज भगवन्त जो, विनसे यह रोग ॥ सोग. ॥ ३ ॥
अरे बावले । अपने प्रियजनों की मृत्यु पर तू शोक न कर इस जगत का जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणिक है। आत्मा का इस देह से संयोग नदी में नाव के समान अल्पकालीन है।
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इस आत्मा का यह देह संयोग अर्थात् मिलन और वियोग शुरू से अन्त तक साथ रहनेवाला नहीं है। इस प्रकार का मनोहर सम्बन्ध अनेक बार सभी प्रकार की देहों से बन चुका है।
एक बार पाकर नष्ट हुआ संयोग/सम्बन्ध करोड़ों वर्षों तक रोने पर भी पुन: नहीं मिलता। सब इसे देखते, जानते व सुनते हैं कि यह देह तो यम का भोग / भोजन है अर्थात् यम का ग्रास है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसों का भी क्षय होता है तो तेरी क्या बिसात हैं, क्या हस्ती है ? द्यानतराय कहते हैं कि तू भगवान का भजन कर जिससे यह मृत्युरोग ही नष्ट हो जाए।
सनबंध = सम्बन्ध।
द्यानत भजन सौरभ
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