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( २५९ )
मानों मानों जी चेतन यह, विषै भोग छांड देहु, विषै की समान कोऊ, नाहीं विष आन ॥ टेक ॥
तात मात पुत्र नार, नदी नाव ज्यों निहार, जोवन गुमान जानों, चपला समान ॥ मानों. ॥ १ ॥
हाथी रथ प्यादे बाज, इनसों न तेरो काज, सुपने समान देख, कहा गरबान ॥ मानों ॥ २ ॥
ये तो देहके मिलापी, तू तो देहसों अव्यापी, ज्ञान दृष्टि धर देखि, चेतिये सुजान ॥ मानों ॥ ३ ॥
हे मेरे चेतन ! तुम यह बात मानलो विषय भोग को छोड़ दो। यह जान लो कि इन्द्रिय-विषयों के समान अन्य कोई विष नहीं है। अर्थात् इसके समान घातक पदार्थ अन्य कोई नहीं है ।
माता-पिता, पुत्र, स्त्री ये सब नदी और नाव के संयोग के समान हैं अर्थात् इनका संयोग बहुत अल्पकाल का है। जिस यौवन पर तुम गर्व करते हो वह बिजली के समान चंचल है।
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हाथी - रथ, सिपाही व घोड़े इन सबसे तेरा कार्य सिद्ध नहीं होता, ये सब स्वप्न के समान हैं। इनका क्या गर्व करना !
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ये सब तो जब तक तेरी देह है तब तक साथ रहनेवाले हैं और तू देह से भिन्न है, उसमें व्याप्त नहीं है। ज्ञान और विवेक से देखकर हे भव्य पुरुष ! तुम चेत जाओ।
थानत भजन सौरभ