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________________ ( २५३ ) बसि संसारमें मैं, पायो दुःख अपार ॥ टेक ॥ मिथ्याभाव हिये धर्यो नहिं जानों सम्यकचार ॥ बसि ॥ 7 काल अनादि हि ह्रौं रुल्यौ हो, नरक निगोदमँझार । सुर नर पद बहुते धरे पद, पद प्रति आतम धार ॥ बसि ॥ १॥ जिनको फल दुखपुंज है हो, ते जानें सुखकार । भ्रम मद पीय विकल भयो नहिं, गह्यो सत्य व्योहार ।। बसि ॥ २ ॥ जिनवानी जानी नहीं हो, कुगति-विनाशनहार । 'द्यानत' अब सरधा करी दुख मेटि लह्यो सुखसार ।। बसि. ।। ३ ।। हे प्रभु! इस संसार में बसकर / रहकर मैंने बहुत दुःख पाए हैं। मैंने मिथ्यात्व को हृदय में धारण कर रखा है, जिसके कारण सम्यक् आचरण को मैं जान ही नहीं सका 1 अनादि से मैं नरक - निगोद में भटकता हुआ, रुलता हुआ चला आ रहा हूँ । अनेक बार देव भी हुआ, मनुष्य भी हुआ और आत्मस्वभाव को भूलकर अनेक प्रतिकूल स्थितियों को धारण करता रहा । जिन क्रियाओं का परिणाम ही दुःख का कारण हैं, दुःख का भंडार हैं, उनको मैं सुखकारक जानता रहा, समझता रहा । भ्रमरूपी शराब के नशे में मत्त होकर सुध गँवाकर दुःखी हुआ और सत्य व्यवहार से विचलित रहा अर्थात् सत्य को नहीं जान सका । J जिनवाणी को मैंने जाना नहीं सुना समझा नहीं। जो कुमति का नाश करनेवाली हैं, उससे बचानेवाली, उसे दूर करनेवाली है। द्यानतराय कहते हैं कि अब मुझे उस पर श्रद्धा जागृत हो गई हैं जिससे दुःख मिटने लगे हैं और सुख का सार समझ में आने लगा है। २९२ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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