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________________ (२३६) जीव! तैं मूढ़पना कित पायो॥टेक॥ सब जग स्वारथको चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो। जीव.॥ अशुचि अचेत दुष्ट तनमाही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निजसुख हरिकै, विषय रोग लपटायो॥ जीव. ॥ १॥ चेतन नान . भयो जड़ काहे, आपनो नाग रापायो। तीन लोकको राज छांडिके, भीख मांग न लजायो॥जीव.॥ २ ॥ मूढ़ पना मिथ्या जब छूटै, तब तू संत कहायो। 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो।। जीव. ॥ ३॥ हे जीव ! हे ज्ञानी । तूने यह मूढपना कहाँ से पाया? सारा जगत स्वार्थ को चाहता है, परन्तु तुझे स्व अर्थ (स्त्र के लिए, स्व का भला) रुचिकर नहीं हुआ। यह पुद्गल देह है, यह अचेतन है, जड़ है, अपवित्र है, अशुचि से दूषित है। क्या जानकर तू इसमें ठहरा हुआ है? तेरी अपनी आत्मा तो अपने ही अतीन्द्रिय सुख से पूरित होकर सर्वश्रेष्ठ है । तूने उसे छोड़कर अपने को इन्द्रिय विषयरूपी रोगों से लिपटा रखा है! तू चेतन स्वभाववाला है, फिर तू जड़ क्यों हो रहा है? क्यों अपने स्वरूप को भूला जा रहा है। त त्रिलोक का स्वामी है, सर्वज्ञ है। अपना ऐसा स्वरूप भूलकर तुझे अन्यत्र भीख माँगते तनिक भी लज्जा नहीं आती? मूर्खतावश हुए इस विपरीत श्रद्धान अर्थात् मिथ्यात्व को जब तू छोड़े, तब तू संत कहलाये। द्यानतराय कहते हैं कि सद्गुरु ग्रह उपदेश देते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति होने पर यह आत्मा अनन्त सुख का भोक्ता होता है। स्वारथ = स्व-अरथ, अपने लिए। २७० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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