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( २२०) हे जिनराजजी, मोहि दुखते लेहु छुड़ाइ॥टेक॥ तनदुख, मनदुख, स्वजनदुख, धनदुख कह्यो न जाइ॥ हे जिन. ॥१॥ इष्टवियोग अनिष्टसमागम, रोग सोग बहु भाइ । हे जिन. ॥ २॥ गरभ जनम मृत बाल विरध दुख, भोगे धरि धरि काइ॥हे जिन. ॥३॥ नरक निगोद अनन्ती बिरियां, करि करि विषय कषाइ॥ हे जिन.॥४॥ पंच परावर्तन बहु कीनें, तुम जानों जिनराइ ॥ हे जिन.॥५॥ भववन भ्रमतम दुखदव जम हर, तुम बिन कौन सहाइ॥ हे जिन.॥६॥ 'द्यानत' हम कछु चाहत नाहीं, भव भव दरस दिखाइ।। हे जिन.॥७॥
हे श्री जिनराज! मुझे दु:खों से छुड़ाओ, दु:खों से मुक्त करो।
मझे तन का, मन का, अपने परिजनों का व धन का सब का दुःख है, जिनका कथन नहीं किया जा सकता।
अपने प्रियजनों से विछोह और अन्य अप्रियजनों से मेल, रोग और शोक इन सब की अधिकता है।
बार-बार अनेक देह के धारण कर गर्भ, जन्म, मृत्यु, बचपन, बुढ़ापा आदि के दुःख भोगे हैं।
विषय- भोगों में लीन रहकर, कषायों में रत रहकर मैं अनंतबार नरक में गया, निगोद में गया।
इन इंद्रिय-विषय-कषायों के कारण अनेक बार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के परावर्तन पूरे किए हैं। हे जिनराय! वे सब आप जानते हैं।
यह भवरूपी वन है जहाँ भ्रमरूपी अंधकार है, दु:खों की दाहाअग्नि है, मृत्यु का दु:ख है जिन्हें दूर करने के लिए आपके अतिरिक्त और कौन सहाई है ? अर्थात्
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द्यानत भजन सौरभ