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(२११) भोर उठ तेरो, मुख देखों जिनदेवा! ॥ टेक॥ देवनके नाथ इन्द्र तेतो पूर्णं मुनिवृन्द, ताके पति गनधर कर तेरी सेवा ॥१॥ अतिशय कारज वसु प्रतिहारज, अनंत चतुष्ठय ठाकुर एवा।।२॥ 'धानत' तारौ इतनौ बिचारी, इसको एक हमारी सहेवा ॥ ३ ॥
हे जिनेन्द्रदेव ! ( मेरा अहो भाग्य है कि मैं ) नित्य प्रात: उठकर आपके दर्शन करता/पाता हूँ । देवों के देव इन्द्र भी आपकी पूजा करते हैं । मुनिजनों के प्रमुख गणधरदेव भी आपकी सेवा करते हैं। ऐसे महिमावान हैं आप, (मेरा अहोभाग्य है कि मैं) नित्य प्रात: उठकर आपके दर्शन करता/पाता हूँ।
आप अतिशयकारी अष्ट प्रातिहार्यों से सुशोभित हैं, अनन्त चतुष्टय के धनो! स्वामी हैं।
द्यानतराय विनती करते हैं कि हे भगवन् ! आप इतना विचार करके कि इसे केवल हमारा ही सहारा है हमें इस भवसागर से तार दीजिए।
अष्ट प्रातिहार्य - १. अशोकवृक्ष, २. सिंहासन, ३. सिर पर तीन छत्र. ४. भामण्डल, ५. दिव्यध्वनि, ६. देवक्त पुष्पवृष्टि, ७. यक्षों द्वारा ६४ चमर दुराना, ८. दुन्दुभि बजना। अनन्त चतुष्टय - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य।
धानत भजन सौरभ
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