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________________ ( १९२ ) राग प्रभाती देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥ टेक ॥ देवदुंदुभी सुमिष्ट, पहुपवृष्टि महा इष्ट शोक करै भ्रष्ट सो, अशांकतरु बड़ाई ॥ देखे. ॥ १ ॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चित सुहात, चमर फरहरात मनो, भगति अति बढ़ाई ॥ देखे. ॥ २ ॥ 'द्यानत' भामण्डलमें, दीसैं परजाय सात, बानी तिहुँकाल झरे, सुरशिवसुखदाई ॥ देखे. ॥ ३ ॥ (इस भजन में समवशरण का वर्णन है ।) मैंने आज समवशरण में विराजित श्री जिनराज के दर्शन किए हैं। उसे देखकर लगता है कि मानो मुझे राज- ऋद्धि मिली है, पाई है, जो उनके स्वामीपन की प्रतीति शक्ति का बोध कराता है। 1 उस समवशरण में हो रही पुष्पवृष्टि महाइष्टकारी है, समर्पण की, भक्तिभावना की सूचक है, आदर भाव का प्रदर्शन हैं। कानों को मधुर लगनेवाली देवदुंदुभि का नाद प्रियकर है, सारे शोक संताप को दूर करनेवाला है अशोक वृक्ष । ये सब यश- वृद्धि के परिचायक हैं। सिंहासन प्रकाश में झिलमिला रहा है, चमक रहा है। तीन छत्र मन को भा रहे हैं । चमर ढोरे जा रहे हैं जिससे स्वामी के प्रति भक्ति व बहुमान प्रगट हो रहा है। - द्यानतराय कहते हैं उनके प्रभा मण्डल में सात भव की घटनाएँ दिखाई देती हैं और तीनों संक्रांति काल में प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरती हैं जो स्वर्ग व मोक्ष का सुख प्रदान करनेवाली है। ऋद्धि तपस्या के प्रभाव से प्राप्त चामत्कारिक शक्तियाँ | २२२ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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