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________________ (१७८) जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय॥टेक॥ रोम रोम लखि हरष होत है, आनंद उर न समाय॥जिन. ॥ १॥ शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय॥जिन.॥२॥ इंद फनिंद नरिंद विभौ सब, दीसत है दुखदाय। जिन.॥३॥ . 'द्यानत' पूजै ध्यावै गावै, मन वच काय लगाय॥ जिन.॥४॥ हे जिनेन्द्र। आपके बिम्ब की, मूर्ति की शोभा वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती, वह अवर्णनीय है। आपकी प्रतिमा को देखकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता है। इतना आनन्द होता है कि मन में नहीं समाता 1 हृदय पात्र से आनन्द छलकने लगता है। आपका प्रशान्त रूप मोक्षमार्ग की बता रहा है और आपकी मुद्रा उसका उपाय बता रही है, और बता रही है कि ध्यान की मुद्रा यह ही है। इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र आदि सभी के वैभव दुःखकारी/दुःख देनेवाले हैं यह स्पष्ट दीख रहा है। द्यानतराय कहते हैं कि मन, वचन और काय से एकाग्र होकर इनकी पूजा करो, ध्यान करो, गुणगान करो। २०४ द्यानत भजन सौरभ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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