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(१७६) जिनपद चाहै नाहीं कोय॥ टेक॥ तीरथंकर पुन्यपरकृत्ति, पुन्यरासी जोय॥ जिन.॥१॥ मुकति चाहै नाहिं लाहै, बिना चाहैं होय॥जिन. ॥ २॥ चाह दाह मिटाय 'द्यानत', आप आप समोय।। जिन.॥३॥
जिनपद की प्राप्ति कौन नहीं करना चाहता? तीर्थकर पद एक विशेष पुण्य प्रकृति के परिणाम से प्राप्त होता है और वह पुण्य प्रकृति अपार पुण्य हाने पर ही उदय/प्रकट/प्रकाशित होती है।
मुक्ति चाहने से नहीं मिलती, मुक्ति तो समस्त चाह मिटने से होती है, मिलती है। किसी लाभ की आकांक्षा नहीं होने पर वह स्वतः ही होती है।
यानतराय कहते हैं कि चाह की दाह को मिटाकर, अपने आप में अपने आपका ही ध्यान करो, उसी में रम जावो, समा जावो।
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द्वानत भजन सौरभ
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छानत भजन सौरभ