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________________ (११४) राग गोरी देखो भाई! आतमराम विराजै॥ टेक ।। छहों दरब नव तत्त्व ज्ञेय हैं, आप सुजायक छाजै। देखो.।। अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर, पाचौं पद जिहिमाहीं। दरसन ज्ञान चरन तप जिहिमें, पटतर कोऊ नाहीं॥ देखो. ॥१॥ ज्ञान चेतना कहिये जाकी, बाकी पुदगलकेरी। केवलज्ञान विभूति जासुकै, आन विभौ भ्रमचेरी॥देखो. ॥ २॥ एकेन्द्री पंचेन्द्री पुदगल, जीव अतिन्द्री ज्ञाता। 'धानत' ताही शुद्ध दरबको जानपनो सुखदाता ॥ देखो, ।। ३ ।। हे साधक ! ज्ञाता-दृष्टा होकर अपने स्वरूप को देखो, देखो आत्मा किस प्रकार विराजित है ! यह सबका ज्ञायक है, सबको जाननेवाला है। छह द्रव्य व नौ तत्व सब इसके ज्ञेय हैं। अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु - ये पाँच पद आत्मा में ही हैं इनमें दर्शन, ज्ञान, आचरण व सप की उत्कृष्ट स्थिति होती हैं। ये अतुल (तुलनारहित) हैं इनका कोई दूसरा प्रतिरूप नहीं है। इस आत्मा में तो केवल ज्ञान-चेतना ही है, जो इसकी संपदा है। इसके अतिरिक्त शेष सब तो पुद्गल है, पुद्गलजन्य है। इन्हीं के चरणों में केवलज्ञान रूपी संपदा लोटती है । यह विधा अन्य जनों में नहीं है अर्थात् अन्य जनों में तो इसका भ्रामक रूप ही है अर्थात् इसकी समझ ही भ्रमपूर्ण है। चाहे एकेन्द्री से पंचेन्द्री तक हों, चाहे पुद्गल हो, इन सबका ज्ञाता तो केवल जीव ही है, जो अतीन्द्रिय ज्ञान का ज्ञाता है । द्यानतराय कहते हैं कि ऐसे ही शुद्ध जीवद्रव्य के स्वरूप को जानो । उसका बोध ही सब सुखों का दाता है, सुख प्रदान करनेवाला है। द्यानत भजन सौरभ १२७
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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