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उस आत्मा में अनन्तगुण हैं, वह स्वयं गुणमय है, जैसे दिए में ज्योति है और ज्योति में दिया समाहित हैं, समाया हुआ है ।
कमल का फूल जल में रहकर भी जल से भिन्न रहता है (सूखा ही रहता है) उसी भाँति यह आत्मा कर्मों के पास रहकर भी कर्म से सर्वथा भिन्न है ।
जिस प्रकार दर्पण में दिखनेवाली धूप-छाँह में तपन या ठंडक नहीं होती, उसी प्रकार सुख-दुख में रहकर भी आत्मा स्वयं सुख-दुःखरूप नहीं होती ।
आत्मा जगत के सब व्यवहार करते हुए भी जगत से निर्लिप्त है। यह आकाश में ठहरा हुआ भी आकाश से चिपका हुआ नहीं है।
जैसे बरतन में भरे जल के स्थिर होने पर उसमें अपना चेहरा दिखाई पड़ता हैं, द्यानतराय कहते हैं कि वैसे ही मन के विकारों को, चंचलता को हटाकर अपने शुद्ध स्वरूप को देख |
खूब
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उत्तम जूर सूखना ।
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द्यानत भजन सौरभ