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________________ गर्भ अध्ययन १५५३ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि “वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है?" प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ "दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा?" उ. गोयमा ! अट्ठो तहेव सत्त सेढीओ एवं जाव प. अपज्जत्तबायर तेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्तसुहुमतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! सेसं तं चेव। प. अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। प्र. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ “एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा," उ. गोयमा ! अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ। एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि। वाउकाइएसु वणस्सइकाइएसु य जहा पुढविकाइएसु उववाइओ तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। उ. गौतम ! इसका कथन सप्तश्रेणी पर्यन्त पूर्वोक्त प्रकार से ही करना चाहिए इसी प्रकार यावत्प्र. भंते ! जो अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव मनुष्य क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके ऊर्ध्वलोकक्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव मनुष्य क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है?" उ. गौतम ! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी में सप्त श्रेणी का कथन किया वैसे ही यहां जानना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप के उपपात के लिए भी कहना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक का चारों भेदों सहित उपपात कहा, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक का भी चार-चार भेद सहित उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव का उपपात भी इन्हीं स्थानों में जानना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उपपात का कथन किया उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के उपपात का कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्वलोक की वसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके अधोलोकक्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार ऊर्ध्वलोकक्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके अधोलोकक्षेत्र की सनाडी के बाहर के क्षेत्र में उत्पन्न होने वालों के लिए वही सम्पूर्ण आलापक पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव का पर्याप्त बादरवनस्पति कायिक के रूप में उपपात पन्त कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्वी चरमान्त में मरणसमुद्घात करके लोक के पूर्वी चरमान्त में एवं पज्जत्तबायरतेउकाइओ वि एएस चेव ठाणेसु उववाएयव्यो। वाउकाइय-वणस्सइकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववाइओ तहेव भाणियव्यो। प. अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! उड्ढलोग खेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं उड्ढलोगखेत्तनालीए विबाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववज्जयाणं सो चेव गमओ निरवसेसो भाणियव्यो जाव बायरवणस्सइकाइयो पज्जत्तओ बायरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु उववाइओ। प. अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए लोगस्स
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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