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________________ १५४८ ३. दुहओवकाए सेडीए उववज्जमाणे तिसमइएर्ण विग्गणं उववज्जेज्जा । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ " "एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गणं उववज्जेज्जा ।" प. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणयभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तसहमपुढविकाइवत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएण विग्गहेण उववज्जेज्जा ? " " उ. गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण या सेसं तं चैव जाव से तेणट्ठेणं गोयमा ! तिसमइएण वा विग्गणं उववज्जेज्जा । एवं अपज्जतसुहुमपुढविकाइओ पुरत्थिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते बायरपुढविकाइएसु अपज्जत्तएसु उववाएयव्वो, ताहे तेसु चेव पज्जत्तेसु । एवं आउकाइएस वि चत्तारि आलावणा १. सुहुमेहिं अपज्जत्तएहिं, २. ताहे पज्जत्तएहिं, ३. बादरेहिं अपज्जत्तएहिं, ४. ताहे पज्जत्तएहिं उववाएयव्वो । एवं चैव सुडुमते उकाइएहिं वि अपज्जत्तएहिं ताहे पज्जत्तएहिं उववाएयव्वो । प. अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणयभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्तवायरलेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! सेसं तं चैव । एवं पज्जत्तबायर तेउकाइयत्ताए उववाएयव्वो । वाउकाइए सुहुम-बायरेसु जहा आउकाइएसु उववाइओ तहा उचवाएयो । एवं वणस्सइकाइएस वि। (२०) एवं पज्जतसुहुमपुढविकाइओ वि पुरथिमिल्ले चरिमते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो जाव बायरवणस्सइकाइए पज्जत्तएसु ति (४०) एवं अपज्जत्तबायरपुढविकाइओ वि (६०) द्रव्यानुयोग - (३) ३. जो उभयतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इस कारण से गौतम! ऐसा कहा जाता है कि " वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्र. भंते! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिमदिशा के चरमान्त में पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! वह एक समय, दो समय इत्यादि शेष सब कथन (इस कारण से गौतम ! तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है) पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाधिक जीव पूर्वी चरमान्त में मरणसमुद्घात से मरण करके पश्चिमी चरमान्त में बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होता है यह कहना चाहिए। उसी का (पूर्ववत्) पर्याप्त रूप से उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक जीव के भी चार आलापक कहने चाहिए, यथा १. सूक्ष्म अपर्याप्तकों का, २. उन्ही (सूक्ष्म) के पर्यातकों का, ३. बादर - अपर्याप्तकों का, ४. उन्हीं (बादर) के पर्याप्तकों का उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तकों का और उसी के पर्याप्तकों का उपपात कहना चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त में मरणसमुद्घात करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! इसका सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से उपपात का कथन करना चाहिए। जिस प्रकार सूक्ष्म और बादर अप्कायिक का उपपात कहा उसी प्रकार सूक्ष्म और बादर वायुकायिक का उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार (सूक्ष्म और बादर) वनस्पतिकाधिक जीवों के उपपात का कथन करना चाहिए। (२०) इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव का भी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरण समुद्घात से मरने पर क्रमशः इन बीस स्थानों में बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक पर्यन्त उपपात कहना चाहिए । (४०) इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक का उपपात भी कहना चाहिए। (६०)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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