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________________ गर्भ अध्ययन १५४७ उ. गोयमा ! सिय विग्गहगइसमावन्नए, सिय अविग्गहगइसमावन्नगे। दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। उ. गौतम ! कदाचित् विग्रहगति को प्राप्त होता है और कदाचित् विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता है। द.१-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते ! क्या (बहुत से) जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं या अविग्रहगति को प्राप्त होते हैं ? उ. गौतम ! (बहुत से) जीव विग्रहगति प्राप्त भी हैं और अविग्रहगति प्राप्त भी हैं। प्र. भंते ! क्या नैरयिक विग्रहगति को प्राप्त होते हैं या अविग्रहगति को प्राप्त होते हैं ? उ. गौतम ! १.वे सभी विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते हैं। प. जीवाणं भंते ! कि विग्गहगइसमावन्नगा, अविग्गहगइसमावन्नगा? उ. गोयमा ! विग्गहगइसमावन्नगा वि, अविग्गहगइ समावन्नगा वि। प. नेरइया णं भंते ! किं विग्गहगइसमावन्नगा, अविग्गहगइसमावन्नगा? उ. गोयमा ! १. सव्वे वि ताव होज्जा अविग्गहगइसमावन्नगा, २. अहवा अविग्गहगइसमावन्नगा य विग्गहगइ समावन्नगे य, ३. अहवा अविग्गहगइसमावनगा य विग्गहगइ समावन्नगा य, एवं जीव एगिंदियवज्जो तियभंगो।' -विया. स.१,उ.७, सु.७-८ १६. विविह दिसाओ पच्च एगिंदियाणं विग्गहगइस्स समय परूवणंप. कइविहा णं भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा एगिंदिया पण्णत्ता,तं जहा १. पुढविकाइया जाव ५. वणस्सईकाइया। एवमेए वि चउक्कएणं भेएणं भाणियव्वा जाव वणस्सईकाइया। प. अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए.से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। प. से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ “एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ,तं जहा १. उज्जुआयता सेढी, २. एगओवंका, ३. दुहओवंका, ४. एगओखहा, ५. दुहओखहा, ६. चक्कवाला, ७.अद्धचक्कवाला। १. उज्जुयायताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, २. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, १. ठाणं अ.३, उ.४, सु. २२५ २. अथवा बहुत से अविग्रहगति को प्राप्त नहीं होते और कोई एक विग्रहगति को प्राप्त होता है। ३. अथवा बहुत से (जीव) अविग्रहगति को प्राप्त नहीं होते और बहुत से (जीव) विग्रहगति को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जीव सामान्य और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र तीन-तीन भंग कहने चाहिए। १६. विविध दिशाओं की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति. के समय का प्ररूपणप्र. भंते ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं? उ. गौतम ! एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. पृथ्वीकाय यावत् ५. वनस्पतिकाय। इस प्रकार इनके भी वनस्पतिकायिक पर्यंत प्रत्येक के चार-चार भेद कहने चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त -सूक्ष्मपृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह एक समय की, दो समय की या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से - उत्पन्न होता है?" उ. गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं, यथा १. ऋज्वायता, २. एकतोवक्रा, ३. उभयतोवक्रा, ४.एकतःखा,५.उभयतःखा,६. चक्रवाल,७.अर्द्धचक्रवाल। १. जो पृथ्वीकायिक जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है वह एक समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। २. जो एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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