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टीका का निर्माण किया, प्रश्नव्याकरण एवं बृहत्कल्पसूत्र का हिन्दी अनुवाद एवं विवेचन प्रस्तुत किया जो विभिन्न स्थानों से प्रकाशित हुए। अंतगडदशासूत्र की संस्कृत छाया, शब्दार्थ एवं हिन्दी अनुवाद तैयार किया जो सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर से प्रकाशित हुआ। उत्तराध्यायनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र का हिन्दी पद्यानुवाद के साथ प्रस्तुति कराकर भी आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज ने आगम साहित्य की सेवा की। ___ अ. भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना ने मूल आगमों का अंगपविट्ठ एवं अनंगपविट्ठ के रूप में ३२ आगमों का प्रकाशन किया। भगवतीसूत्र का हिन्दी अनुवाद के साथ सात भागों में भी इसी संस्था ने प्रकाशन किया।
श्री मधुकर जी महाराज युवाचार्य द्वारा प्रवर्तित आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर का इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विभिन्न जैन संतों एवं विद्वानों के सहयोग से इस संस्था ने विस्तृत भूमिका के साथ ३२ आगमों का हिन्दी विवेचन के साथ सुन्दर प्रकाशन किया है।
तेरापंथ संस्था जैन विश्वभारती, लाडनूं ने भी आगम प्रकाशन की दिशा में महत्त्व का कार्य किया है। गणाधिपति श्री तुलसी जी (पूर्व में आचार्य) एवं आचार्य महाप्रज्ञ (पहले मुनि नथमल एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ) के सम्पादन में अंगसुत्ताणि के तीन भाग एवं उवंगसुत्ताणि के दो भाग व नवसुत्ताणि में मूल आगमों का प्रकाशन हुआ है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिकसूत्र भी हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पणों के साथ प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने हाल ही में आचारांगसूत्र पर संस्कृत में भाष्य की रचना की है जो हिन्दी अनुवाद एवं परिशिष्ट के साथ सन् १९९४ ई. में प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व भगवतीसूत्र पर भाष्य का एक भाग उनका प्रकाशित हो चुका है। __श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संस्थाओं में आगमोदय समिति, सूरत; श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई एवं हर्षपुष्पामृत ग्रन्थमाला, लाखाबावल (सौराष्ट्र) के नाम प्रमुख हैं। आगमोदय समिति, सूरत से श्री सागरानन्दसूरि द्वारा संपादित आगमों का प्रकाशन हुआ। हर्षपुष्यामृत ग्रन्थमाला में ‘आगम-सुधा-सिन्धु' नाम से ४५ आगमों का संकलन-संपादन १४ भागों में हुआ है। इसी प्रकार श्री आनन्दसागर जी के संपादन में 'आगमरलमंजूषा' के अन्तर्गत सभी आगम प्रकाशित हुए हैं।
महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से लगभग २० आगमों का प्रकाशन हो चुका है। यहाँ से प्रकाशित आगमों को पाठ-निर्धारण की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी, मुनि श्री जम्बूविजय जी, पं. श्री बेचरदास जी दोशी, पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया आदि प्रमुख विद्वानों की सूक्ष्मेक्षिका का उपयोग इन आगमों के सम्पादन में हुआ है, इसलिए इन्हें विद्वज्जगत् में अधिक प्रामाणिक माना जाता है।
जैन आगमों पर शोध कार्य भी हुए हैं। अनेक विश्वविद्यालयों में विद्वानों ने आगमों को आधार बनाकर अपने शोध प्रबन्ध लिखे हैं तथा पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। किन्तु अभी उच्चस्तरीय कार्यों की गुंजाइश ज्यों की त्यों है। उपसंहार
तत्त्वज्ञान की दिशा में द्रव्यानुयोग का महत्त्व असंदिग्ध है। द्रव्यानुयोग का यह प्रकाशन तत्त्वजिज्ञासुओं का तो पथ-प्रदर्शन करेगा ही, किन्तु इक्कीसवीं शती में होने वाले आगम अनुशीलन को भी एक दिशा प्रदान करेगा। आगमों में उपलब्ध पाठभेद एवं संक्षिप्तीकरण से होने वाली कठिनाई का निवारण करने की दिशा में समुचित प्रयास को बल मिले, ऐसी आशा है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बरों के भेद को भुलाकर यदि समस्त आगमों के अध्ययन की रुचि जागृत हो तो महत्त्व का कार्य हो सकता है।
आज आवश्यकता है आगमों का प्राण समझने की तथा उन्हें हृदयंगम कर जन-समाज के लिए उपयोगी एवं प्रेरणादायी रूप में प्रस्तुत करने की। आने वाले समय में अनुभवी साधक-विद्वान् इस ओर आशा है अपने चरण बढ़ायेंगे।
प्रस्तावना-लेखन में हुए विलम्ब के लिए कृपाशील उपाध्यायप्रवर अनुयोग प्रवर्तक श्री कन्हैयालाल जी महाराज से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ तथा पाठकों की ज्ञान-वृद्धि हेतु मंगल कामना करता हूँ। उनके सुझाव एवं सद्भाव के लिए सदैव स्वागत है।
वसन्त पंचमी २४ जनवरी, १९९६
-डॉ. धर्मचन्द जैन सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय
जोधपुर-३४२ ०१०
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