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________________ चरमाचरम आगम में जीवादि द्रव्यों की विविध प्रकार से प्ररूपणा हुई है। इससे इन द्रव्यों की विविध विशेषताएँ प्रकट हुई हैं। चरम एवं अचरम की दृष्टि द्वारा निरूपण भी यही प्रयोजन सिद्ध करता है। चरम का अर्थ होता है-अन्तिम एवं अचरम का अर्थ होता है-जो अन्तिम न हो। जीव एवं अजीव द्रव्य जिस अवस्था-विशेष अथवा भाव-विशेष को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, उस अवस्था एवं भाव-विशेष की अपेक्षा वे चरम एवं जिसे पुनः प्राप्त करेंगे, उसकी अपेक्षा अचरम कहे जाते हैं। चरम एवं अचरम की दृष्टि से षड्द्रव्यों में से जीव एवं पुद्गल का ही विचार किया जाता है, शेष चार द्रव्यों-धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल का चरम-अचरम संभव नहीं है। इसलिए आगम में इन चारों के चरम एवं अचरम का कोई विचार नहीं हुआ है। चौबीस दण्डकों एवं जीव-सामान्य में चरमाचरमत्व का निरूपण ११ द्वारों से किया गया है। वे ११ द्वार हैं-(१) गति, (२) स्थिति, (३) भव, (४) भाषा, (५) आनापान, (६) आहार, (७) भाव, (८) वर्ण, (९) गंध, (१०) रस एवं (११) स्पर्श द्वार। जीव कथंचित् चरम है एवं कथंचित् अचरम है। जीवभाव की अपेक्षा वह अचरम है तथा नैरयिकभाव की अपेक्षा वह चरम है। अन्य विवक्षा से १४ द्वारों में भी चरमाचरमत्व का निरूपण हुआ है। वे १४ द्वार हैं-(१) जीव, (२) आहारक, (३) भवसिद्धिक, (४) संज्ञी, (५) लेश्या, (६) दृष्टि, (७) संयत, (८) कषाय, (९) ज्ञान, (१०) योग, (११) उपयोग, (१२) वेद, (१३) शरीर एवं (१४) पर्याप्तक द्वार। ___ अजीव द्रव्यों में से पुद्गल के चरमाचरमत्व पर विचार किया जाता है। पुद्गल के पाँच संस्थान प्रतिपादित हैं-(१) परिमण्डल, (२) वृत्त, (३) त्रिकोण, (४) चतुष्कोण और (५) आयत। पंचकोण, षट्कोण आदि का समावेश उपलक्षण से चतुष्कोण में ही हो जायेगा। ये सभी संस्थान नियम से एक की अपेक्षा अचरम एवं बहुवचन की अपेक्षा चरम होते हैं। परमाणु पुद्गल द्रव्यादेश से अचरम हैं तथा क्षेत्रादेश, कालादेश एवं भावादेश से वह कदाचित् चरम हैं और कदाचित् अचरम हैं। अजीव ___ लोक में मुख्यतः दो ही द्रव्य हैं-(१) जीव द्रव्य और (२) अजीव द्रव्य। षड्द्रव्यों में से जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों-(१) धर्म, (२) अधर्म, (३) आकाश, (४) काल और (५) पुद्गल की गणना अजीव द्रव्य में की जाती है। जीव द्रव्य चेतनायुक्त होता है, उसमें ज्ञान एवं दर्शन गुण रहते हैं, जबकि अजीव द्रव्य चेतनाशून्य होता है तथा वह ज्ञान-दर्शन गुणों से रहित होता है। जीव द्रव्य उपयोगमय होता है, जबकि अजीव द्रव्य में उपयोग नहीं पाया जाता। जीव एवं अजीव की भेदक रेखाएँ अनेक हैं, किन्तु मुख्यतः ज्ञान, दर्शन, उपयोग या चैतन्य के आधार पर इन्हें पृथक् किया जाता है। अजीव द्रव्य भी दो प्रकार के होते हैं-(१) रूपी अजीव द्रव्य और (२) अरूपी अजीव द्रव्य। जो द्रव्य वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान (आकृति) से युक्त होते हैं वे रूपी अजीव द्रव्य कहलाते हैं तथा जो अजीव द्रव्य वर्णादि से रहित होते हैं वे अरूपी अजीव द्रव्य कहे जाते हैं। अरूपी अजीव द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल द्रव्य की गणना होती है तथा रूपी अजीव द्रव्य की कोटि में मात्र पुदगल द्रव्य का समावेश होता है। पुद्गल द्रव्य में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान पाया जाता है इसलिए यह रूपी कहलाता है तथा शेष धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल द्रव्यों में वर्णादि नहीं पाये जाते इसलिए वे अरूपी कहलाते हैं।' पुद्गल समस्त जगत् में जो कुछ भी दृश्यमान है अथवा इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है वह सब पुद्गल है। षड्द्रव्यों में यही एक ऐसा द्रव्य है जो मूर्त या रूपी है। तत्त्वार्थसूत्र में पुद्गल का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-"स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।"२ अर्थात् जो स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण से युक्त हैं वे पुद्गल हैं। पुद्गल द्रव्यों की कुछ पर्यायें और भी हैं, जिन्हें भी पुद्गल के अन्तर्गत ही सम्मिलित किया जाता है। वे पर्यायें उत्तराध्ययनसूत्र में शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया एवं आतप के रूप में कही गई हैं तथा तत्त्वार्थसूत्र में बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान एवं भेद से युक्त को भी पुद्गल कहा गया है। जो इन्द्रियगोचर होता है वह पुद्गल ही होता है, किन्तु पुद्गल के परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि ऐसे सूक्ष्म अंश भी हैं, जिन्हें इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। तथापि इनमें वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श की उपलब्धि के कारण इन्हें पुद्गल ही कहा जाता है। इन्हें अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान अथवा केवलज्ञान से जाना जाता है। पुद्गल का एक निरुक्तिपरक अर्थ यह किया जाता है कि जो पूरण एवं गलन अवस्था को प्राप्त हो वह पुद्गल है। संघात से यह पूरण अवस्था को तथा भेद से गलन अवस्था को प्राप्त होता है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार जीव जिन्हें शरीर, आहार, विषय, इन्द्रिय आदि के रूप में ग्रहण करता है, वे पुद्गल हैं। १. अजीव द्रव्य के सम्बन्ध में इस प्रस्तावना में द्रव्य, अस्तिकाय, पर्याय, परिणाम, जीवाजीव एवं पुद्गल शीर्षक द्रष्टव्य हैं। २. (i) तत्त्वार्थसूत्र ५/२३ (ii) रूपिणः पुद्गलाः। -५/३ सूत्र भी उपलब्ध है। ३. उत्तराध्ययनसूत्र २८/१२, द्रव्यानुयोग, पृ. १८७१ ४. शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च। -तत्त्वार्थसूत्र ५/२४
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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