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________________ २००८ पृ. ६६९ सोहम्मीसाणाई कप्पाणं अहे गेहाईणं अभावं बलाहयाईण भाव य परूवणं सूत्र २८ (ख) प. अत्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे गेहा इ वा, गेहावणा इवा ? उ. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । प. अत्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे उराला बलाहया ? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि । देवो पकरेड़, असुरो वि पकरेह नो नाओ पकरे। एवं क्षणिय वि प. अत्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे बायरे पुढविकाइए, बायरे अगणिकाए ? उ. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे, नऽन्नत्थ विग्गहगइसमावन्नएणं । प. अत्थि णं भंते ! चंदिम- सूरिय- गहगण - नक्खत्त- तारारूवा ? उ. गोयमाणो इणट्ठे समट्ठे। प. अत्थि णं भंते ! गामाइ वा जाव सण्णिवेसाइ वा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । प. अत्थि णं भंते ! चंदाभा इवा, सूराभाइ वा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । एवं सणकुमार माहिंदेसु णवरं देवो एगो परेड । एवं बंभलोए वि एवं बंभलोगस्स उचरिं सव्वेहि देवो पकरेड़। पुच्छिब्बे व बावरे आउकाए वायरे तेउकाए, बायरे वणस्सइकाइए । अन्नं तं चेव । गाहा—-तमुकाए कप्पपणए अगणी पुढवी य, अगणि पुढवीसु । आऊ ते वणस्सइ कप्पुवरिम कण्हराईसु ॥ - विया. स. ६, उ. ८, सु. १५-२६ पृ. ६८७ सोत्थियाइ बेमाणिय देव विमाणाणं आयाम विक्खंभ महालयत्त य पलवर्ण सूत्र. ७४ (ख) प. अस्थि भंते सोत्थियपभाई, विमाणाई सोत्वियाणि, सोत्थियावत्ताई सोत्थियकन्ताई, सोल्थिययन्नाई, द्रव्यानुयोग - (३) सौधर्म ईशानादि कल्पों के नीचे गृहादिकों का अभाव बलाहकादिकों के भाव का प्ररूपण प्र. भंते ! क्या सौधर्म और ईशान कल्पों के नीचे गृह या गृहापण हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। उ. प्र. भंते ! क्या सौधर्म और ईशान देवलोकों के नीचे उदार बलाहक (महामेघ) हैं ? उ. ही गौतम (यहाँ महामेघ हैं)। (सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे पूर्वोक्त ये कार्य बादलों का छाना, मेघ उमड़ना, वर्षा बरसाना आदि) देव करते हैं, असुर भी करते हैं, किन्तु नागकुमार नहीं करते। इसी प्रकार वहाँ स्तनित शब्द के लिए भी कहना चाहिए। प्र. भंते! क्या सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे वादर पृथ्वीकायिक और बादर अग्निकाय है? . उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, यह निषेध विग्रहगति समापन्नक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिए जानना चाहिए। प्र. भंते ! क्या वहाँ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते! क्या वहाँ ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! क्या वहाँ चन्द्रप्रभा और सूर्यप्रभा है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष - वहाँ (यह सब ) सिर्फ देव ही करते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मलोक (पंचम देवलोक ) में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मलोक से ऊपर के सभी देवलोकों में पूर्वोक्त कथन करना चाहिए और (यह सब ) सिर्फ देव ही करते हैं। इसी प्रकार बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय के लिए प्रश्न करने चाहिए तथा पूर्ववत् सब कथन करना चाहिए। गायार्थ-तमस्काय और पाँच देवलोकों में अग्निकाय और पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वियों में अग्निकाय के सम्बन्ध में पाँचवें देवलोक से ऊपर सब स्थानों में तथा कृष्णराजियों में अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करने चाहिए। स्वस्तिक आदि वैमानिक देव विमानों के आयाम- विष्कंभ और विशालता का प्ररूपण प्र. भंते ! क्या स्वस्तिक, स्वस्तिकावर्त, स्वस्तिकप्रभ स्वस्तिककान्त, स्वस्तिकवर्ण स्वस्तिकलेश्य,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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