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________________ २००७ परिशिष्ट: ३ गणितानुयोग प. से किं तं पच्छाणुपुदी? उ. पच्छाणुपुव्वी ईसिपब्माराजाव सोहम्मेकप्पे। से तं पच्छाणुपुव्वी। प. से किं तं अणाणुपुव्वी? उ. अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए पण्णरसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो। से तं अणाणुपुव्वी। -अणु.सु.१७२-१७५ प्र. ऊर्ध्वलोक क्षेत्र पश्चानुपूर्वी का क्या स्वस्लप है ? उ. ईषप्राग्भारापृथ्वी से सौधर्म कल्प तक के क्षेत्रों का व्युत्क्रम से कथन करने को ऊर्ध्वलोक क्षेत्र पश्चानुपूर्वी कहते हैं। प्र. ऊर्ध्वलोक क्षेत्र अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उ. आदि में एक रखकर एकोत्तरवृद्धि द्वारा निर्मित पन्द्रह पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर प्राप्त राशि में से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष भंगों को ऊर्ध्वलोक क्षेत्र अनानुपूर्वी कहते हैं। वैमानिक विमानों की संख्या आदि का प्ररूपण पृ.६५८ वेमाणिय विमाणाणं संखाइ परूवणंसूत्र ६ (ख) प. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। प. ते णं भंते ! किं मया पण्णत्ता? उ. गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा, सेसं तं चेव। प्र. भंते ! सौधर्म कल्प में कितने लाख विमानावास कहे गए है ? उ. गौतम ! उसमें बत्तीस लाख विमानावास कहे गए हैं। प्र. भंते ! वे विमानावास किस वस्तु से निर्मित हैं? उ. गौतम ! वे सर्वरलमय हैं और स्वच्छ हैं, शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार (सौधर्म कल्प से) अनुत्तरविमान पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-जहाँ जितने भवन या विमान हों उतने कहने चाहिए। एवं जाव अणुत्तरविमाणा। णवर-जाणियव्वा जत्तिया भवणा विमाणा वा। -विया स.१९, उ.७,सु.८-१० पृ.६५९ कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों के इन्द्र कप्पोववन्नग वेमाणिय देवाणं इंदासूत्र ७ (ख) सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पण्णत्ता, तं जहा१. सक्के चेव, २. ईसाणे चेव। सणंकुमार माहिंदेसु कप्पेसु दो इंदा पण्णत्ता,तं जहा१. सणंकुमारे चेव, २. माहिदे चेव। बंभलोग-लंतएसुणं कप्पेसु दो इंदापण्णत्ता,तं जहा१. वंभे चेव, २. लंतए चेव। महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु दो इंदा पण्णत्ता,तं जहा१. महासुक्के चेव, २. सहस्सारे चेव। आणय-पाणय आरण-अच्चुएसु णं कप्पेसु दो इंदा पण्णत्ता, तं जहा १. पाणए चेव, २. अच्चुए चेव। -ठाणं अ.२, सु. १०४ पृ.६६० सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए जिणसकहाओ अवट्ठिइसूत्र ८ (ख) सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयखंभे हेट्ठा उवरि च अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीसं जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्ट समुग्गएसु जिणसकहाओ पण्णत्ताओ। -सम. सम.३५ सौधर्म और ईशान कल्प के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा१. शक्र, २. ईशान। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा१. सनत्कुमार, २. माहेन्द्र। ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा१. ब्रह्म २. लान्तक। महाशुक्र और सहस्रार कल्प के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा१. महाशुक्र, २. सहस्रार। आनत और प्राणत तथा आरण और अच्चुत कल्प के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा१. प्राणत, २. अच्युत। सौधर्म कल्प की सुधर्मा सभा में जिनअस्थियों की अवस्थिति सौधर्म कल्प की सुधर्मा सभा में माणवक नामक चैत्यस्तंभ के नीचे और ऊपर के साढ़े बारह-साढ़े बारह योजन क्षेत्र को छोड़कर मध्य के पैंतीस योजन में वज्रमय गोलवृत्त वर्तुलाकार डिब्बों में जिनेश्वर देवों की अस्थियाँ कही गई हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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