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________________ (३५) तिर्यञ्चगति, (३६) मनुष्यगति, (३७) देवगति, (३८) वक्कंति, (३९) गर्भ, (४०) युग्म, (४१) गम्मा, (४२) आत्मा, (४३) समुद्घात, (४४) चरमाचरम, (४५) अजीव द्रव्य और (४६) पुद्गल। ___उपर्युक्त अध्ययनों में से ज्ञान अध्ययन तक के प्रथम २४ अध्ययनों की विषय-वस्तु द्रव्यानुयोग के प्रथम भाग में प्रकाशित हुई है। द्वितीय भाग में २५वें संयत अध्ययन से ३८वें वक्कंति अध्ययन तक प्रकाशित हैं। गर्भ से पुद्गल तक के शेष अध्ययन एवं प्रकीर्णक का प्रकाशन प्रस्तुत तृतीय भाग में हुआ है। ३२ आगमों की विषय-वस्तु को चार अनुयोगों में विभक्त करने का श्रमसाध्य कार्य उपाध्यायप्रवर ने पूर्ण कर लिया है, किन्तु यह अत्यन्त ही कठिन कार्य है। इसकी कठिनाई का एक कारण यह भी है. कि एक अनुयोग की विषय-वस्तु दूसरे अनुयोग से भी सम्बद्ध होती है। चरणानुयोग एवं धर्मकथानुयोग में द्रव्यानुयोग की विषय-वस्तु का प्राप्त होना सहज सम्भव है। इसी प्रकार द्रव्यानुयोग के एक अध्ययन की विषय-वस्तु दूसरे अध्ययन से भी सम्बद्ध हो सकती है। इसलिए अनुयोगों का व्यवस्थापन एवं अध्ययनों का नियोजन अत्यन्त ही दुष्कर कार्य था। उपाध्यायप्रवर ने इस कार्य को स्वविवेक से सम्पन्न किया है। द्रव्यानुयोग के इन तीनों भागों में उन्होंने एक अतीव उपयोगी कार्य यह किया है कि प्रत्येक भाग के अन्त में उस खण्ड से सम्बद्ध अध्ययनों के परिशिष्ट दिए हैं, जिनमें उन अध्ययनों से सम्बन्धित जो जानकारी अन्य अनुयोगों एवं अध्ययनों में आई है उसकी पृष्ठ संख्या एवं सूत्र संख्या का निर्देश कर दिया है, जिससे पाठक को एक अध्ययन से सम्बद्ध सम्पूर्ण विषय-वस्तु चारों अनुयोगों से प्राप्त करने में अत्यन्त सुविधा का अनुभव होगा। द्रव्यानुयोग की विषय-वस्तु व्यापक है, तथापि षड्द्रव्यों का वर्णन द्रव्यानुयोग का एक प्रमुख विषय है। षड्द्रव्य हैं-(१) धर्म, (२) अधर्म, (३) आकाश, (४) काल, (५) पुद्गल और (६) जीव। इन षड्द्रव्यों में से जीव एवं पुद्गल के प्रस्तुत द्रव्यानुयोग में स्वतन्त्र अध्ययन भी हैं तथा अनेक अध्ययन जीव एवं पुद्गल के वर्णन से ही सम्बद्ध हैं। उल्लेखनीय यह है कि धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल द्रव्यों के निरूपण हेतु द्रव्यानुयोग के तीनों खण्डों में कोई भी स्वतन्त्र अध्ययन नहीं है। इन चार द्रव्यों से सम्बद्ध जानकारी अनेक अध्ययनों में उपलब्ध है। षड्यों में से किस द्रव्य का वर्णन किस अध्ययन में प्राप्त होता है, इसकी स्थूल रूपरेखा इस प्रकार रखी जा सकती है धर्म द्रव्य-द्रव्य अध्ययन, अस्तिकाय अध्ययन, पर्याय अध्ययन एवं अजीव अध्ययन। अधर्म द्रव्य-उपर्युक्त चारों अध्ययन। आकाश द्रव्य-उपर्युक्त चारों अध्ययन। काल द्रव्य-द्रव्य अध्ययन, पर्याय अध्ययन, जीवाजीव अध्ययन एवं अजीव अध्ययन। जीव द्रव्य-अजीव एवं पुद्गल अध्ययनों को छोड़कर प्रायः शेष सभी अध्ययन जीव द्रव्य से सम्बद्ध हैं। पुद्गल द्रव्य-द्रव्य अध्ययन, अस्तिकाय अध्ययन, पर्याय अध्ययन, परिणाम अध्ययन, जीवाजीव अध्ययन, अजीव अध्ययन एवं पुद्गल अध्ययन। द्रव्य एवं तमोगुण को प्रवृत्ति का प्रति कि वह गुरु, प्रवृत्ति प्रतिबन्ध प्रकाशक एवं प्रीत्यात्मक होता है। प्रकृति को त्रिगुणात्मिका द्रव्य के स्वरूप एवं भेदों के निरूपण में जैनदर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। धर्म एवं अधर्म द्रव्य अन्य किसी भारतीयदर्शन में निरूपित नहीं हैं। यह एकमात्र जैनदर्शन है जिसमें धर्म द्रव्य एवं अधर्म द्रव्य को भी द्रव्यों की गणना में स्थान दिया गया है। धर्म द्रव्य पुद्गल, जीव आदि द्रव्यों की गति में निमित्त कारण बनता है तथा अधर्म द्रव्य स्थिति में निमित्त कारण बनता है। सांख्यदर्शन में प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहते हुए उसमें सत्त्व, रज एवं तम ये तीन गुण माने गए हैं। सत्त्वगुण लघु, प्रकाशक एवं प्रीत्यात्मक होता है। रजोगुण प्रवर्तक, चल एवं अप्रीत्यात्मक होता है। तमोगुण का वैशिष्ट्य है कि वह गुरु, प्रवृत्ति-प्रतिबन्धक (वरणक) एवं विषादात्मक होता है। इन तीन गुणों में रजोगुण को प्रवर्तक एवं तमोगुण को प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक कहा गया है जो क्रमशः धर्म एवं अधर्म द्रव्यों से साम्य प्रदर्शित करता है, किन्तु धर्म एवं अधर्म द्रव्य का जैनदर्शन में जो स्वातन्त्र्य निरूपित है, वह सांख्यदर्शन में रजोगुण एवं तमोगुण का नहीं। प्रकृति में तीनों गुण सहभावी हैं, उनके विना प्रकृति का कोई स्वरूप नहीं है, जबकि धर्म-अधर्म द्रव्य पूर्णतः स्वतन्त्र हैं। दूसरी बात यह है कि धर्म एवं अधर्म द्रव्य लोकव्यापी हैं जवकि रजोगुण एवं तमोगुण नहीं। तीसरी बात यह है कि रजोगुण एवं तमोगुण को प्रकृति की अपेक्षा है, धर्म एवं अधर्म द्रव्यों को रहने के लिए लोकाकाश की आवश्यकता है, अन्य किसी द्रव्य की नहीं। 'आकाश' को द्रव्य रूप में प्रायः सभी दर्शनों ने स्वीकार किया है, किन्तु आकाश के लोकाकाश एवं अलोकाकाश के रूप में दो भेद प्रायः जैनेतरदर्शनों में प्राप्त नहीं होते हैं। जैनदर्शन में आकाश दो भागों में विभक्त है-लोकाकाश एवं अलोकाकाश। यह विभाजन कल्पित विभाजन है। आकाश के कोई वास्तविक टुकड़े नहीं किए जा सकते, किन्तु जो आकाश चौदह राजू लोक तक सीमित है उसे लोकाकाश कहा जाता है तथा इस परिधि से बाहर का आकाश अलोकाकाश कहा जाता है। लोकाकाश में वस्तुएँ देखी जा सकती हैं। अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य का होना स्वीकार नहीं किया गया है। धर्म, अधर्म, काल, जीव एवं पुद्गल द्रव्य लोकाकाश तक ही सीमित हैं। मुक्त या सिद्ध जीव भी लोक की परिधि को नहीं लाँघता। वह लोक के ऊर्ध्व भाग में स्थित रहता है तथा वहाँ रहकर ही समस्त लोकालोक को जानता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों में 'शब्द' को आकाश द्रव्य का गुण माना गया है, जबकि जैनदर्शन में आकाश का गुण अवगाहन करना है, शब्द तो एक प्रकार का पुद्गल है। उसका समावेश पुद्गल द्रव्य के अन्तर्गत होता है। 'काल' द्रव्य की चर्चा भी भारतीयदर्शन में होती रही है। वैशेषिकदर्शन में काल का विस्तृत निरूपण हुआ है। प्रशस्तपादभाष्य में काल (२९)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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