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________________ द्रव्यानुयोग को चरणाम मोक्षमार्ग को जानने की दृष्टि सम्यक् बनता है तथा दर्शना विवेचन द्रव्यानुयोग में समाहित (३) अनुयोग का प्राकृत शब्द 'अणुओग' है। अणु का अर्थ है-सूत्र। अर्थ के आनन्त्य की अपेक्षा सूत्र को अणु कहा जाता है। अथवा तीर्थकरों के द्वारा 'उप्पन्नेइ वा' इत्यादि त्रिपदी का अर्थ कहा जाता है उसके पश्चात् ही गणधर सूत्र की रचना करते हैं, इसलिए उस अणु अर्थात् सूत्र का अभिधेय अर्थ में व्यापार या योग 'अणुयोग' है। (४) अनुयोग के उपर्युक्त अर्थों के अतिरिक्त 'व्याख्यान' अर्थ का भूरिशः प्रयोग हुआ है। विशेषावश्यकभाष्य के वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र ने 'अनुयोगस्तु व्याख्यानम् १ 'अनुयोगो व्याख्यानं विधि-प्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणम्'२ इत्यादि वाक्यों में अनुयोग का व्याख्यान या व्याख्या अर्थ प्रतिपादित किया है। सूत्र का अभिधेय अर्थ के साथ योजन भी एक प्रकार से सूत्र का व्याख्यान ही है। 'अनुयोग' शब्द 'अनु' उपसर्गपूर्वक 'युज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है, जिसका पूर्व निर्दिष्ट अर्थों में से एक अर्थ हैअनुरूप योग। बिखरी हुई विषय-वस्तु का अनुरूपेण एकत्र संयोजन भी इस दृष्टि से 'अनुयोग' है। चार प्रसिद्ध अनुयोगों के नामों का आश्रय लेकर उपाध्यायप्रवर श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने ३२ आगमों का चार अनुयोगों में अनुरूप संयोजन किया है, जिससे सूत्र की व्याख्या एवं सम्बद्ध विषय-वस्तु को एक साथ समझने में सुविधा का अनुभव होगा। द्रव्यानुयोग का महत्त्व एवं स्वरूप ____ चार अनुयोगों में द्रव्यानुयोग का विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि यह अन्य तीन अनुयोगों में भी न्यूनाधिक रूप में अनुगत है। मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से भी द्रव्यानुयोग का ज्ञान अपरिहार्य है। षड्द्रव्य एवं नवतत्त्व से सम्बद्ध समस्त विवेचन द्रव्यानुयोग में समाहित होता है। नवतत्त्वों के स्वरूप को समझकर उन पर यथार्थ श्रद्धा करने से दर्शन सम्यक् बनता है तथा दर्शन के सम्यक् होने पर ही ज्ञान एवं आचरण सम्यक् होते हैं। अतएव द्रव्यानुयोग मोक्षमार्ग को जानने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। भोजसागर (१६वीं शती) विरचित 'द्रव्यानुयोगतर्कणा' में द्रव्यानुयोग को चरणानुयोग एवं करणानुयोग का सार बताते हुए उसे पण्डितजनों को प्रिय प्रतिपादित किया गया है।३ भोजसागर ने षद्रव्यविचार, सूत्रकृतांग आदि सूत्रों तथा सम्मतिप्रकरण व तत्त्वार्थसूत्र आदि को द्रव्यानुयोग कहा है। सम्मतिग्रन्थ (सिद्धसेन रचित) से भोजसागर ने एक गाथा उद्धृत करते हुए द्रव्यानुयोग का महत्त्व स्थापित किया है। गाथा है "चरणकरणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्चयसुद्धं न जाणंति॥४ अर्थात् चरणकरणानुयोग के ज्ञान से सम्पन्न जन भी स्वसमय एवं परसमय के व्यापार से मुक्त रहते हैं, क्योंकि वे चरणकरणानुयोग के सारभूत निश्चय शुद्ध द्रव्यानुयोग को नहीं जानते हैं। पण्डित टोडरमल ने भी चार अनुयोगों में द्रव्यानुयोग को प्रधान स्वीकार किया है। द्रव्यानुयोग क्या है? इसका स्वरूप बतलाते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं “दव्वस्स जोऽणुजोगो दव्वे दव्वेण दव्वहेऊ वा। - दव्वस्स पज्जवेण व जोग्गो दब्वेण वा जोगो॥५ अर्थात् द्रव्य का अनुयोग ही प्रमुख रूप से द्रव्यानुयोग है। अनुयोग का अर्थ यहाँ व्याख्यान अथवा अनुरूप से योग या सम्बन्ध है। द्रव्य का अधिकरणभूत द्रव्य से योग, करणभूत द्रव्य से योग, हेतुभूत द्रव्य से योग भी निक्षेप की संभावनाओं में द्रव्यानुयोग है। द्रव्य का पर्याय के साथ योग भी इस प्रकार द्रव्यानुयोग की परिधि में आता है, यथा-वस्त्र का कुसुम्भ रंग-पर्याय से अनुयोग। इस प्रकार द्रव्यानुयोग के विभिन्न रूप हो सकते हैं, किन्तु शास्त्र की दृष्टि से द्रव्यानुयोग का अर्थ द्रव्यों की व्याख्या का अनुरूप व्यवस्थापन लेना ही उचित होगा। . द्रव्यानुयोग के जिनभद्रगणि ने दो भेद किए हैं-(१) जीव द्रव्य का अनुयोग एवं (२) अजीव द्रव्य का अनुयोग। जीव द्रव्य एवं अजीव द्ध के अनुयोग को भी उन्होंने चार प्रकार का प्रतिपादित किया है-(१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से और (४) भाव से। प्रस्तुत द्रव्यानुयोग उपाध्यायप्रवर श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने आचरण या चारित्र से सम्बद्ध आगम-विषय-वस्तु को चरणानुयोग में संकलित किया है। आगम की धर्मकथाओं का संयोजन उन्होंने धर्मकथानुयोग में किया है; जैन गणित, खगोल एवं ज्योतिष से सम्बद्ध सामग्री को गणितानुयोग में रखा है तथा शेष समस्त आगम-वस्तु को द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत संगृहीत किया है। द्रव्यानुयोग में षड्द्रव्यों के सम्बन्ध में तो विषय-वस्तु संगृहीत है ही, किन्तु इसमें कर्मसिद्धान्त, ज्ञान, दर्शन, लेश्या आदि के सम्बन्ध में भी विभिन्न अध्ययन संयोजित हैं। द्रव्यानुयोग के तीनों भागों में मिलाकर ४६ अध्ययन हैं। ४७वाँ अध्ययन प्रकीर्णक नाम से है, जिसमें ४६ अध्ययनों के पश्चात् अवशिष्ट सामग्री को रखा गया है। ४६ अध्ययन इस प्रकार हैं-(१) द्रव्यानुयोग, (२) द्रव्य, (३) अस्तिकाय, (४) पर्याय, (५) परिणाम, (६) जीवाजीव, (७) जीव, (८) प्रथमाप्रथम, (९) संज्ञी, (१०) योनि, (११) संज्ञा, (१२) स्थिति, (१३) आहार, (१४) शरीर, (१५) विकुर्वणा, (१६) इन्द्रिय, (१७) उच्छ्वास, (१८) भाषा, (१९) योग, (२०) प्रयोग, (२१) उपयोग, (२२) पासणया, (२३) दृष्टि, (२४) ज्ञान, (२५) संयत, (२६) लेश्या, (२७) क्रिया, (२८) आम्रव, (२९) वेद, (३०) कषाय, (३१) कर्म, (३२) वेदना, (३३) गति, (३४) नरकगति, १. विशेषावश्यकभाष्य, भाग १, गाथा १, पृ.१ २. वही, पृ.२ ३. विना द्रव्यानुयोगोऽहं चरणकरणाख्ययोः। सारं नेति कृतिप्रेष्ठं निर्दिष्टं सम्मतौ स्फूटम्।। ४. सन्मतिप्रकरण ३/६७ ५. विशेषावश्यकभाष्य १३९१ (२८)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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