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प्रकीर्णक
उ. गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगस्स
पोग्गलस्स भावओ तुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ नो तुल्ले,
एवं जाव दसगुणकालए। तुल्लसंखेज्जगुणकालए पोग्गले वि एवं चेव।
एवं तुल्लअसंखेज्जगुणकालए वि।
एवं तुल्लअणंतगुणकालए वि।
जहा कालए एवं नीलए, लोहियए, हालिदए, सुकिल्लए।
१९०५ उ. गौतम ! एक गुण काले-वर्ण वाला पुद्गल दूसरे एक गुण काले
वर्ण वाले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है, किन्तु एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल एक गुण काले वर्ण से व्यतिरिक्त दूसरे पुद्गलों के साथ भाव से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार दस गुण काले पुद्गल पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार तुल्य संख्यात गुण कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के लिए भी जानना चाहिए। इसी प्रकार असंख्यातगुण कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के लिए जानना चाहिए। इसी प्रकार तुल्य अनन्तगुण कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के लिए भी जानना चाहिए। जिस प्रकार काले वर्ण के लिए कहा उसी प्रकार नीले, लाल, पीले और श्वेत वर्ण के विषय में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध के लिए कहना चाहिए। इसी प्रकार तिक्त यावत् मधुर रस के लिए कहना चाहिए। कर्कश यावत् रुक्ष स्पर्श वाले पुद्गल के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिए।
औदयिक भाव औदयिक भाव की अपेक्षा भाव से तुल्य है किन्तु औदयिक भाव औदयिक भाव से व्यतिरिक्त भाव से भाव की अपेक्षा तुल्य नहीं है। इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के विषय में भी कहना चाहिए। सान्निपातिक भाव, सान्निपातिक भाव के साथ भाव से तुल्य है, किन्तु सान्निपातिक भाव सान्निपातिक भाव से व्यतिरिक्त भाव से तुल्य नहीं है। इस कारण से गौतम ! 'भावतुल्य-भावतुल्य' कहा जाता है।
एवं सुब्भिगंधे दुब्भिगंधे।
एवं तित्ते जाव महुरे। एवं कक्खडे जाव लुक्खे।
उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, उदइए भावे उदइयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले।
एवं उवसमिए,खइए,खयोवसमिए, पारिणामिए।
सन्निवाइए भावे सन्निवाइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, सन्निवाइए भावे सन्निवाइय भाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ
'भावतुल्लए भावतुल्लए।' प. ६.से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ
'संठाणतुल्लए, संठाणतुल्लए?' उ. गोयमा ! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स
संठाणओ तुल्ले, परिमंडले संठाणे परिमंडलसंठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले। एवं वट्टे, तंसे, चउरसे, आयए।
प्र. ६. भन्ते ! किस कारण से 'संस्थानतुल्य-संस्थानतुल्य' कहा
जाता है? उ. गौतम ! परिमण्डल संस्थान, अन्य परिमण्डल संस्थान के साथ
संस्थानतुल्य है किन्तु परिमण्डल संस्थान परिमण्डल संस्थान से व्यतिरिक्त संस्थान से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार वृत्त संस्थान, त्र्यम्न संस्थान, चतुरनसंस्थान एवं आयतसंस्थान के विषय में भी कहना चाहिए। एक समचतुरस्रसंस्थान अन्य समचतुरस्रसंस्थान के साथ संस्थान से तुल्य है, किन्तु समचतुरन संस्थान समचतुरनसंस्थान से व्यतिरिक्त संस्थान से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार हुण्डकसंस्थान पर्यन्त कहना चाहिए। इस कारण से गौतम ! 'संस्थान तुल्य संस्थान तुल्य' कहा जाता है।
समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ 'तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरंससंठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले। एवं जाव हुंडे से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'संठाणतुल्लए संठाणतुल्लए।'
'-विया. स. १४, उ.७, सु.४-१०