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________________ १८८५ पुद्गल अध्ययन प. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सव्वबंधे? उ. गोयमा ! देसबंधे, नो सव्वबंधे। प. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा १. अणाईए वा अपज्जवसिए, २. अणाईए वा सपज्जवसिए। प. तेयासरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! अणाईयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं, प्र. भन्ते ! तैजस्शरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध होता है या सर्वबन्ध होता है? उ. गौतम ! देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं होता है। प्र. भन्ते ! तैजसूशरीरप्रयोगबन्ध काल से कितने काल तक होता है? उ. गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. अनादि-अपर्यवसित २. अनादि-सपर्यवसित। प्र. भन्ते ! तैजस्शरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! अनादि-अपर्यवसित तैजस्शरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर नहीं है, अनादि-सपर्यवसित तैजस्शरीर प्रयोगबन्ध का भी अन्तर नहीं है। प्र. भन्ते ! इन तैजस्शरीर के देशबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है? अणाईयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। प. एएसि णं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? उ. गोयमा !१.सव्वत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा, २. देसबंधगा अणंतगुणा। -विया. स.८, उ.९, सु. ९०-९६ १२५. अट्ठविह कम्मासरीरप्पयोगबंधस्स वित्थरओ परूवणं- उ. गौतम ! १. तैजस्-शरीर के अबन्धक जीव सबसे अल्प है, २. (उनसे) देशबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। प. कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते? उ. गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते,तं जहा १. नाणावरणिज्ज-कम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव ८. अंतराइय-कम्मासरीरप्पयोगबंधे। प. १. णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? उ. गोयमा ! नाणपडिणीययाए, णाणणिण्हवणयाए, णाणंतराएणं, णाणप्पदोसेणं, णाणच्चासायणाए, णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोग बंधे। १२५. आठ प्रकार के कार्मण शरीरप्रयोग बन्ध का विस्तार से प्ररूपणप्र. भन्ते ! कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा १. ज्ञानावरणीय कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध यावत् ८. अन्तराय कार्मणशरीर-प्रयोग बन्ध। प्र. १.भन्ते ! ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म __के उदय से होता है? उ. गौतम ! ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता) करने से, ज्ञान का निह्नव (अपलाप) करने से, ज्ञान में अन्तराय देने से, ज्ञान से प्रद्वेष करने से, ज्ञान की अत्यन्त आशातना करने से, ज्ञान के विसंवादन-योग (उपघात) से तथा ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय से ज्ञानावरणीय-प्रयोगबन्ध होता है। प्र. २. भन्ते ! दर्शनावरणीय कार्मण शरीर प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है? उ. गौतम ! दर्शन की प्रत्यनीकता करने से, दर्शन का निह्नव करने से, दर्शन में अन्तराय देने से, दर्शन से प्रद्वेष करने से, दर्शन की अत्यन्त आशातना करने से, दर्शन-विसंवादन योग से तथा दर्शनावरणीय कार्मणशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से दर्शनावरणीय कार्मणशरीर प्रयोगबन्ध होता है। प्र. ३. भन्ते ! सातावेदनीयकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है? प. २. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? उ. गोयमा ! दंसणपडिणीययाए, दंसणणिण्हवणयाए, दसणंतराएणं, दसणप्पदोसेणं, दंसणच्चासायणाए, दसणविसंवादणाजोगेणं, दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पओगबंधे। प. ३. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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