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________________ १८७८ एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । प. जीवस्स णं भंते ! एगिंदियत्ते णो एगिंदियत्ते पुणरवि एगंदिय एगिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवचिर होड़? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्त्रेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेण दो सागरीवमसहरसाई संखेज्जवासमन्महिवाई. देसबंधंतरं जहन्त्रेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्साई संखेज्ज वासममहियाई । प. जीवस्स णं भंते! पुढविकाइयत्ते नो पुढविकाइयत्ते पुणरवि पुढविकाइयते पुढविकाइयएगिदिय ओरालियसरीरप्पयोगबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! सव्यबंधंतर जहन्त्रेण दो खुड्डाई भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं अनंत काल, अणता उस्सप्पिणी- ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरिया ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो । देसबंधंतरं जत्रेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अणतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो । जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइययजाणं जाय मणुरसाणं । वणरसइकाइयाणं दोणि खुड्डाई एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सपिणि ओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढवीकालो । " -विया. स. ८, उ. ९, सु. ४१-४९ ११७. ओरालियसरीरबंधगाबंधगाणं अच्याबहु प. एएसि णं भंते! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्या वा जाय विसेसाहिया था ? उ. गोयमा ! 9 सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा २. अबंधगा विसेसाहिया, ३. देसबंधगा असंखेज्जगुणा । -विया. स. ८, उ. ९, सु. ५० द्रव्यानुयोग - (३) इसी प्रकार मनुष्यों के शरीरबन्धान्तर के विषय में भी पूर्ववत् उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! एकेन्द्रियावस्थागत जीव नो-एकेन्द्रियावस्था ( किसी दूसरी जाति) गत होकर पुनः एकेन्द्रिय में हो तो एकेन्द्रियऔदारिक- शरीर-प्रयोगबन्ध का कितने काल का अन्तर होता है ? उ. गौतम ! (ऐसे जीव का.) सर्वबन्धान्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव-ग्रहण काल और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष - अधिक दो हजार सागरोपम का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लक भवग्रहण और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का होता है। प्र. भंते! पृथ्वीकायिक अवस्थागत जीव नो पृथ्वीकायिकअवस्था में उत्पन्न हो और पुनः पृथ्वीकायिक रूप में आए तो पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध का कितने काल का अन्तर होता है ? उ. गौतम ! (ऐसे जीव का) सर्वबन्धान्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लकभव-ग्रहण काल और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण है, क्षेत्र से अनन्त लोक प्रमाण और असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है। वे पुद्गल-परावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। (अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय है, उतने पुद्गल परावर्तन हैं।) देशबन्ध का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव ग्रहण और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है, जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का औदारिकशरीर प्रयोग बन्धान्तर कहा गया है उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों को छोड़कर मनुष्यों पर्यन्त जानना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य दो क्षुल्लकभव-ग्रहण आदि पूर्ववत् जानना चाहिए। उत्कृष्ट असंख्यातकाल प्रमाण है जो काल से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी और क्षेत्र से असंख्यात लोक प्रमाण है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जघन्य समयाधिक शुल्लकभवग्रहण है और उत्कृष्ट पृथ्वीकाय के स्थितिकाल के बराबर है। ११७. औदारिक शरीर के बंधक-अबंधकों का अल्पबहुत्व प्र. भंते ! औदारिक शरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन- किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? उ. गौतम ! १. सबसे अल्प औदारिक शरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, २. ( उनसे ) अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, ३. (उनसे) देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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