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________________ पुद्गल अध्ययन १८७७ जेसिं पुण अस्थि वेउव्वियसरीर तेसिं देसबंधो जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयूणा कायव्वा। एवं जाव मणुस्साणं देसबंधे जहन्नेणं एक्वं समयं, उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवमाइं समयूणाई। -विया. स.८, उ. ९, सु.३७-४० ११६. ओरालियसरीरप्पयोग बंधंतर काल परूवणं प. ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचिरं जिनके वैक्रियशरीर है, उनके देशबन्ध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट जिसकी जितनी स्थिति है, उसमें से एक समय कम तक होता है, इसी प्रकार यावत् मनुष्यों का देशबन्ध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम तीन पल्योपम तक जानना चाहिए। ११६. औदारिक शरीरबन्ध के अन्तर काल का प्ररूपण प्र. भंते ! औदारिक शरीर के बन्ध का अन्तर काल कितना है? होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं. उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडि समयाहियाई। देसबंधंतरं जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं तिसमयाहियाई। प. एगिदियओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई। देसबंधंतरं जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। प. पुढविक्काइयएगिंदिय ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! सब्वबंधतरं जहेव एगिदियस्स तहेव भाणियव्यं। देसबंधंतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिण्णि समया। जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चरिंदियाणं वाउक्काइयवज्जाणं। उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण है और उत्कृष्ट समयाधिक पूर्वकोटि सहित तेतीस सागरोपम है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेतीस सगारोपम है। प्र. भंते ! एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीरबन्ध का अन्तर काल कितना है? उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव-ग्रहण है और उत्कृष्ट एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है। देशबन्ध का अन्तर काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरबन्ध का अन्तर काल कितना है? उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध काल का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय का कहा गया है उसी प्रकार कहना चाहिए। देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन समय का है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर बन्ध का अन्तर कहा गया है, उसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़कर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के शरीरबन्ध का अन्तर कहना चाहिए। विशेष-उत्कृष्ट सर्वबन्ध का अन्तर जिस जीव की जितनी स्थिति है, उससे एक समय अधिक कहनी चाहिए। वायुकायिक जीवों के सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम शुल्लकभव ग्रहण और उत्कृष्ट समयाधिक तीन हजार वर्ष है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। प्र. भंते ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-औदारिकशरीरबन्ध का कितने काल का अन्तर कहा गया है? उ. गौतम ! सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण है और उत्कृष्ट समयाधिक पूर्वकोटि का है। देशबन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों का कहा गया उसी प्रकार सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का कहना चाहिए। णवरं-सव्वबंधंतरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयाहिया कायव्वा। वाउक्काइयाणं सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं,उक्कोसेणं तिण्णिवाससहस्साई समयाइियाई। देसबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। प. पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी समयाहिया। देसबंधंतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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