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प. से किं तं आगमओ दव्वखंधे? उ. आगमओ दव्वखंधे जस्स णं खंधे इ पयं सिक्खियं, ठियं, जिय मियं जाव णेगमस्स एगे अणुवउत्तं आगमओ एगे दव्वखंधे, दो अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दव्वखंधाइं, तिण्णि अणुवउत्ता आगमओ तिण्णि दव्वखंधाई, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइया ताई दव्वखंधाई।
एवमेव ववहारस्स वि।
संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुवउत्तो वा, अणुवउत्ता वा दव्वखंधे वा दव्वखंधाणि वा से एगे दव्वखंधे। उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगे दव्वखंधे, पुहत्तंणेच्छइ। तिण्ठं सद्दणयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्यू, कम्हा जइ जाणए कहं अणुवउत्ते भवइ। सेतं आगमओ दव्वखंधे। प. से किं तंणो आगमओ दव्वखंधे? उ. णो आगमओ दव्वखंधे तिविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. जाणगसरीरदव्वखंधे, २. भवियसरीरदव्वखंधे,
३. जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखंधे। प. से किं तं जाणगसरीरदव्वखंधे? . उ. जाणगसरीरदव्वखंधे खंधे इ पयत्थाहिगार जाणगस्स
जं सरीरयं ववगय चुयचावित चत्त देहं जीव विप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ताणं कोइ भणेज्जा-अहो! णं इमेणं सरीरं समुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं खंधे त्ति पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं।
द्रव्यानुयोग-(३) ) प्र. आगमद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है? उ. जिसने स्कन्ध पद को सीखा है, स्थित किया है, जित, मित किया है यावत् नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा आगम से एक द्रव्यस्कन्ध है, दो अनुपयुक्त आत्मायें आगम से दो द्रव्य स्कन्ध हैं, तीन अनुपयुक्त आत्मायें तीन आगमद्रव्यस्कन्ध हैं, इस प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त आत्मायें हैं, उतने ही आगमद्रव्यस्कन्ध जानना चाहिये। इसी प्रकार व्यवहारनय भी आगमद्रव्यस्कन्ध के भेद मानता है। संग्रहनय एक अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्य स्कन्ध और अनेक अनुपयुक्त आत्मायें अनेक द्रव्यस्कन्ध नहीं मानता है, किन्तु सभी को एक ही द्रव्यस्कन्ध मानता है। ऋजुसूत्रनय एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्यस्कन्ध मानता है। वह भेदों को स्वीकार नहीं करता है। तीनों शब्दनय अनुपयुक्त ज्ञायक को अवस्तु मानते हैं। क्योंकि जो ज्ञायक है वह अनुपयुक्त कैसे हो सकता है?
यह आगम द्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। प्र. नो आगमद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है? । उ. नो आगमद्रव्यस्कन्ध तीन प्रकार का कहा गया है, यथा
१. ज्ञायकसरीरद्रव्यस्कन्ध, २. भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध,
३. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध। प्र. ज्ञायकसरीर द्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है? उ. स्कन्ध पद के अधिकार को जानने वाले के व्यवपगत
(चैतन्यरहित) चित चावित (प्राणरहित) त्यक्त देह जीव विप्रमुक्त शरीर को शैय्यागत संस्तारकगत सिद्धसिलागत देखकर कोई कहे-अहो ! इस शरीरपिण्ड से (जिनोपदिष्टभाव से) स्कन्धपद का अध्ययन किया था, प्रज्ञापित, प्ररूपित, दर्शित, निदर्शित और उपदर्शित किया था, वह ज्ञायक शरीर द्रव्य स्कन्ध है? इसका कोई दृष्टान्त है? यह मधुकुंभ था, यह घृतकुंभ था, यह ज्ञायकशरीर
द्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। प्र. भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है? उ. समय पूर्ण होने पर यथाकाल कोई योनिस्थान से बाहर
निकला और वह इस प्राप्त शरीरसंघात से भविष्य में जिनोपदिष्ट भावानुसार स्कन्ध पद को सीखेगा किन्तु अभी
नहीं सीखता है। प्र. उसके लिए क्या दृष्टान्त है? उ. यह मधुकुंभ होगा या घृतकुम्भ होगा ऐसा कहा जाता है, यह
भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध है। प्र. ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध का क्या
स्वरूप है?
जहा को दिटुंतो? अयं महुकंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी, से तं जाणग
सरीर दव्वखंधे। प. से किं तं भवियसरीरदव्वखंधे? उ. भवियसरीरदव्वखंधे जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते
इमेणं चेव सरीरसमुस्सएणं आदत्तएणं जिणोवइङेणं खंधे इ पयं से य काले सिक्खिस्सइ ण ताव सिक्खइ।
प. जहा को दिट्ठतो? उ. अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुम्भे भविस्सइ, से तं
भवियसरीर दव्वखंधे। प. से किं तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरिते दव्वखंधे?