SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८०७ पुद्गल अध्ययन २. अपज्जत्तग-सव्वट्ठ-सिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पाईय वेमाणियदेवपंचिंदिय पओग परिणया य। तइओ दंडओजे अप्पज्जत्तासुहुमपुढविकाइयएगिंदियपओगपरिणया, ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, जे पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिंदियपओगपरिणया, ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, एवं जाव चउरिंदिया पज्जत्ताणवर-जे पज्जत्तबायरवाउकाइयएगंदियपओगपरिणया, ते ओरालियवेउव्वियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया, सेसंतं चेव। जे अपज्जत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपओगपरिणया, ते वेउव्वियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, एवं पज्जत्तया वि। एवं जाव-अहेसत्तमपुढविनेरइयपंचिंदियपओगपरिणया। जे अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया। एवं पज्जत्तगा वि। गब्भवक्कंतिया अपज्जत्तया एवं चेव, २. अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल। तृतीय दण्डकजो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक तैज्स और कार्मणशरीर प्रयोग परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक तैज्स और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त चतुरिन्द्रियों पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जो पुद्गल पर्याप्त बादर वायुकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक वैक्रिय तैजस् और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं, शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नारक पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे वैक्रिय तैजस् और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त नारकों के संबंध में भी जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। जो पुद्गल अपर्याप्त सम्मूर्छिम जलचर तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक तैजस् और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। गर्भज अपर्याप्त जलचरों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। पर्याप्तकों का कथन भी इसी प्रकार है। विशेष-पर्याप्त बादर वायुकाय के समान उनके चार शरीर होते हैं। जिस प्रकार जलचरों के चार आलापक कहे गये हैं उसी प्रकार (स्थलचर के) चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर के भी चार-चार आलापक कहने चाहिए। जो पुद्गल सम्मूर्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक तैजस् और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्त गर्भज मनुष्यों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। पर्याप्तकों का कथन भी इसी प्रकार है। विशेष-उनके पांच शरीर कहने चाहिए। जिस प्रकार अपर्याप्तक नैरयिकों के सम्बन्ध में कहा उसी प्रकार अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देवों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्तकों का कथन है। पज्जत्तया णं एवं चेव, णवर-सरीरगाणि चत्तारि जहा बायरवाउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं। जहा जलयरेसु चत्तारि आलावगा भणिया, तहा चउप्पय-उरपरिसप्प-भुयपरिसप्प-खहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा। जे सम्मुच्छिममणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया, ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, एवं गब्भवक्कंतिया अपज्जत्तगा वि। पज्जत्तगा वि एवं चेव, णवरं-सरीरगाणि पंच भाणियव्वाणि, जे अपज्जत्तगा-असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव। एवं पज्जत्तगा वि,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy