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________________ - १७४९) पुद्गल अध्ययन १७४९ विनसा परिणमन में एक द्रव्य वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान परिणत होता है वह इनके भेदोपभेदों में भी परिणत होता है। दो पुद्गल द्रव्यों, तीन पुद्गल द्रव्यों, चार, पाँच, छह यावत् दस पुद्गल द्रव्यों, संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त पुद्गल द्रव्यों में प्रयोग परिणमन, मिश्र परिणमन और विनसा परिणमन के द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी आदि अनेक भंग बनते हैं। __ अल्प-बहुत्व की दृष्टि से विचार किए जाने पर ज्ञात होता है कि सबसे अल्प पुद्गल प्रयोग परिणत है, उनसे मिश्र परिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं तथा उनसे विनसा परिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि पुद्गलों का स्वाभाविक परिणमन अधिक होता है। पर्याय की दृष्टि से तो सभी द्रव्यों की पर्यायों का निरन्तर परिणमन हो रहा है। पुद्गल अनन्त हैं। एक परमाणु पुद्गल अनन्त हैं, एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं, एक समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त हैं, एक गुण कृष्ण वर्ण वाले यावत् एक गुण रुक्ष स्पर्श वाले पुद्गल भी अनन्त हैं। द्विप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, दो समय की स्थिति वाले पुद्गल, दो गुण कृष्ण वर्ण वाले यावत् दो गुण रुक्ष स्पर्श वाले पुद्गल भी अनन्त हैं। इसी प्रकार तीनप्रदेशी, चारप्रदेशी, पाँचप्रदेशी यावत् दसप्रदेशी पुद्गल उतने क्षेत्र, काल एवं भाव वाले होकर भी अनन्त हैं। यह वर्णन स्थानांग सूत्र के अनुसार है। वहाँ पर दस स्थान तक वर्णन है अतः दसप्रदेशी पुद्गलों तक का वर्णन वहाँ प्राप्त है, संख्यात, असंख्यात एवं अनन्तप्रदेशी का नहीं। आगम-परम्परा के अनुसार संख्यातप्रदेशी आदि पुद्गल भी अनन्त ही हैं। लोक के एक आकाशप्रदेश में व्यवधान न हो तो छहों दिशाओं से पुद्गल आकर एकत्रित होते हैं और व्यवधान होने पर कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच दिशाओं से पुद्गल आकर एकत्रित होते हैं। इसी प्रकार एक आकाश में स्थित पुद्गल विभिन्न दिशाओं की ओर पृथक् होते हैं। क्या शुभ पुद्गल अशुभ पुद्गलों के रूप में तथा अशुभ पुद्गल शुभ पुद्गलों के रूप में बदलते हैं ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। आगम के अनुसार इसका उत्तर हाँ में जाता है। शुभ शब्द पुद्गल अशुभ शब्द के रूप में तथा अशुभ शब्द पुद्गल शुभ शब्द के रूप में परिणत होते हैं। इसी प्रकार शुभ रूप वाले पुद्गल अशुभ रूप में और अशुभ रूप वाले पुद्गल शुभ रूप में परिणत होते हैं। गंध, रस एवं स्पर्श के सन्दर्भ में भी यही कथन है अर्थात् उनमें भी शुभ-अशुभ का पारस्परिक परिणमन होता रहता है। व्यवहारनय में जिस गुड़ को हम मधुर समझते हैं वह निश्चयनय में पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस एवं आठ स्पर्श युक्त है। इसी प्रकार जिस भ्रमर को हम काला समझते हैं वह वास्तव में पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस एवं आठ स्पर्श से युक्त है। इस प्रकार के कथनों की चर्चा इस अध्ययन में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र से हुई है। जैनागमों में परमाणु के चार प्रकार प्रतिपादित हैं-१. द्रव्य परमाणु, २. क्षेत्र परमाणु, ३. काल परमाणु और ४. भाव परमाणु। द्रव्य परमाणु के अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य ये चार भेद किए गए हैं। क्षेत्र परमाणु के अनर्द्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य ये चार भेद प्रतिपादित हैं। काल परमाणु के अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श ये चार भेद हैं तथा भाव परमाणु के वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् ये चार प्रकार किए गए हैं। परमाणु में जो सामर्थ्य निरूपित किया गया है वह अद्भुत है तथा वैज्ञानिकों के लिए अन्वेषण का विषय है। आगम के अनुसार एक परमाणु पुद्गल लोक के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त तक, पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक, दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त तक, उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक, ऊपरी चरमान्त से नीचे के चरमान्त तक तथा नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त तक एक समय में जाता है। वैज्ञानिकों के द्वारा ऐसा परमाणु आविष्कृत नहीं हुआ है। ये परमाणु पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत हैं तथा वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। परमाणु पुद्गलों के संघात और भेद से अनन्तानन्त पुद्गल परिवर्त होते हैं। ये पुद्गल परिवर्त सात प्रकार के कहे गए हैं-१. औदारिक पुद्गल परिवर्त, २. वैक्रिय, ३. तैजस्, ४. कार्मण, ५. मन, ६. वचन और ७. आनप्राण पुद्गल परिवर्त। नैरयिक से लेकर वैमानिकों तक ये सातों पुद्गल परिवर्त कहे गए हैं तथा इन पुद्गल परिवर्तों को जाना जा सकता है। इन पुद्गल परिवर्तों पर अतीतकाल एवं भविष्यकाल की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। वर्तमान भव की अपेक्षा भी इन दण्डकों में विचार किया गया है। अल्प-बहुत्व की दृष्टि से सबसे अल्प वैक्रिय पुद्गल परिवर्त हैं तथा सबसे अधिक कार्मण पुद्गल परिवर्त हैं। इन पुद्गल परिवों की पूर्णता (निष्पन्नता) अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में होती है। इनमें सबसे कम कार्मण पुद्गल परिवर्त की निर्वर्तना (निष्पत्ति) का काल है तथा सबसे अधिक वैक्रिय पुद्गल परिवर्त की निर्वर्तना का काल है। परमाणुओं की गति अनुश्रेणि होती है। अनुश्रेणि गति आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार (बिना मोड़ के) होती है। परमाणु-पुद्गलों की भाँति द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों की गति भी अनुश्रेणि ही प्रतिपादित की गई है। नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक की गति भी अनुश्रेणि ही स्वीकृत है। नारदपुत्र एवं निर्ग्रन्थीपुत्र में संवाद हुआ कि क्या सब पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं ? नारदपुत्र ने निर्ग्रन्थ पुत्र से कहा कि मेरे मत में सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं। निर्ग्रन्थीपुत्र ने इस पर प्रश्न किया कि क्या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं ? इस पर नारदपुत्र ने स्वीकृतिपरक उत्तर दिया। इस पर निर्ग्रन्थीपुत्र ने पुनः प्रश्न किया-सभी पुद्गलों में परमाणु पुल भी समाहित हैं, क्या वे भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल, काल की अपेक्षा एक समय की स्थिति वाला पुद्गल और भाव की अपेक्षा एक गुण काला पुद्गल भी क्या सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होगा? वस्तुतः यह कथन उचित नहीं है। मेरी धारणानुसार द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं और अनन्त भी हैं। इसी प्रकार क्षेत्र, काल एवं भावादेश से भी जानना चाहिए। भगवान् महावीर एवं गौतम में भी पुद्गल के सार्द्ध, समध्य एवं सप्रदेश के सम्बन्ध में विस्तार से शंका समाधान हुए हैं। जिसके अनुसार परमाणु पुद्गल अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश हैं। आर सप्रदेश होगा? वस्तुतः यह कथभा जानना चाहिए। भगवान् महावीर और अप्रदेश हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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