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________________ १७०४ द्रव्यानुयोग-(३) उ. हता, गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पणो केवलि समुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं जे पोग्गला पणणत्ता समणाउसो ! सव्वलोग पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति। छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किंचि वण्णेण वण्णं, गंधेण गंध, रसेणं रस, फासेणं वा फासं जाणइ पासइ? उ. गोयमा !णो इणढे समढे। प. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ "छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वि वण्णेणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं वा फासं जाणइपासइ?" उ. गोयमा ! अयण्णं जंबूद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए, सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए। वट्टे रहचक्कवालसंठाण संठिए। वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए। वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए। एंगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खभेणं, तिण्णि य जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते। देवे णं महिड्ढीए जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गय गहाय तं अवदालेइ तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्घयं अवदालेत्ता इणामेव कट्ट केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवाइहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे? हंता, फुडे। छउमत्थे णं गोयमा ! मणूसे तेसिं घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वणं, गंधेणं गंध, रसेणं रस, फासेणं वा फासं जाणइ पासइ? उ. हाँ, गौतम ! केवलीसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल होते हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं और वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं। प्र. भंते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों को चक्षु-इन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसेन्द्रिय से रस को या स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को जानता-देखता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि “छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों को चक्षुइन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को,रसेन्द्रिय से रस को तथा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को किंचित् भी नहीं जानता-देखता है?" उ. गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, तेल के पूए के आकार सा गोल है, रथ के पहिये के आकार-सा गोल है, कमल की कर्णिका के आकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार-सा गोल है। लम्बाई और चौड़ाई एक लाख योजन की है। इसकी परिधि तीन लाख,सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक-सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक की कही गई है। एक महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन युक्त सुगन्ध की एक बड़ी डिबिया को (हाथ में लेकर) खोलता है फिर विलेपनयुक्त सुगन्धित उस बड़ी डिबिया को इस प्रकार हाथ में ले ले करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को तीन चुटकियों में इक्कीस बार घूम-घूमकर वापस शीघ्र आ जाय तोहे गौतम ! क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप स्पृष्ट हो जाता है? हाँ, (भंते !) स्पृष्ट हो जाता है। हे गौतम ! क्या छद्मस्थ मनुष्य (समग्र जम्बूद्वीप में व्याप्त) चक्षुइन्द्रिय से उन गंध पुद्गलों के वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गंध को, रसेन्द्रिय से रस को और स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को किंचित् जानता-देखता है? भंते ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, गन्ध को नाक से, रस को जिह्वा से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जानता-देखता है।" इसीलिए हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (निर्जरा) पुद्गल इतने सूक्ष्म - कहे गए हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे भंते !णो इणढे समढे। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं वा फासं जाणइ पासइ।" ए सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि यणं फुसित्ता णं चिट्ठति। -पण्ण. प.३६, सु.२१६८-२१६९ १. प. अणगारेणं णं भंते ! भावियप्पा केवलिसमुग्घाएणं समोहणित्ता, केवलकप्प लोयं फुसित्ताणं चिट्ठइ? उ. हंता, गोयमा !चिट्ठइ। प. से पूर्ण भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं निज्जरापोग्गलेहि फुडे ? उ. हंता, फूडे। -उव.सु.१३१-१३२ २. उव.सु.१३३-१४०
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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