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________________ १६९२ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खेते अफुण्णे, केवइए खेत्ते फुडे? जाव से णं भंते ! णेरइए ते य णेरइया अण्णेसिंणेरइयाणं परंपराघाएणं कइ किरिया? उ. गोयमा ! एवं जहेवजीवे। णवरं-णेरइयाभिलावो। २-२४. एवं णिरवसेसं जाव वेमाणिए। २. कसाय समुग्घाए एवं कसायसमुग्घाओ विभाणियव्यो। ३. मारणंतिय समुग्घाएप. जीवेणं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहिणं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खेत्ते अफुण्णे, केवइए खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ बाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स अंसखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते अफूण्णे, एवइए खेत्ते फुडे। प. से णं भंते ! खेत्ते केवइए कालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे? उ. गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइयण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं एवइकालस्स अफुण्णे, एवइकालस्स फुडे। सेसंतं चेव जाव पंचकिरिया। द्रव्यानुयोग-(३) भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है? यावत् भंते ! वह नारक और वे नारक अन्य नैरयिकों का परम्परा से घात करने पर कितनी क्रियाओं वाले होते हैं? उ. गौतम ! जैसा समुच्चय जीव के विषय में कहा, वैसा ही सम्पूर्ण कथन करना चाहिए। विशेष-यहाँ “जीव" के स्थान में "नारक" शब्द का प्रयोग करना चाहिए। दं. २-२४. इस प्रकार वैमानिकों पर्यन्त सम्पूर्ण कथन करना चाहिए। २. कषाय समुद्घात इसी प्रकार कषायसमुद्घात का भी समग्र वर्णन कहना चाहिए। ३. मारणांतिक समुद्घातप्र. भंते ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, भंते ! उन पुदगलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है? उ. गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को तथा लम्बाई में जघन्य एक दिशा में अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक के क्षेत्र को परिपूर्ण करता है और इतने ही क्षेत्र को स्पृष्ट करता है। प्र. भंते ! वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से परिपूर्ण होता है तथा कितने काल में स्पृष्ट होता है? उ. गौतम ! वह क्षेत्र एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय जितने विग्रह काल में (उन पुद्गलों से) परिपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। शेष कथन पूर्ववत् कदाचित् पाँच क्रियाएँ लगती हैं पर्यन्त करना चाहिए। दं.१. समुच्चय जीव के समान नैरयिक का भी कथन करना चाहिए। विशेष-लम्बाई में जघन्य एक दिशा में कुछ अधिक हजार योजन, उत्कृष्ट असंख्यात योजन उक्त पुद्गलों से परिपूर्ण होता है और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से परिपूर्ण और स्पृष्ट कहना चाहिए। विशेष-चार समय के विग्रह से स्पृष्ट नहीं कहना चाहिए। शेष कथन पूर्ववत् कदाचित् पाँच क्रियाएँ लगती हैं पर्यन्त करना चाहिए। दं. २. असुरकुमार का कथन जीवपद के (मारणान्तिक समुद्घात के) अनुसार करना चाहिए। विशेष-असुरकुमार का विग्रह नारक के विग्रह के समान तीन समय का होता है। शेष सब पूर्ववत् है। दं.३-२४. जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। दं.१.एवं णेरइए वि। णवर-आयामेणं जहण्णेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेते अफुण्णे, एवइए खेत्ते फुडे विग्गहेणं एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा। णवरं-चउसमइएणण भण्णइ। सेसंतं चेव जाव पंचकिरिया वि। दं.२.असुरकुमारस्स जहा जीवपए। णवरं-विग्गहो तिसमइओजहाणेरइयस्स। सेसंतंचेव। दं.३-२४.जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिए।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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