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________________ १६७२ 7 कालादेसेणं-जहणेण अट्ठारस सागरोचमाई दोहिं वासपुहतेहिं अमहियाई उक्कोसेणं सत्तावन्नं सागरोवमाई चउहिं पुव्यकोडीहि अमहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (पढमो गमओ) सेसा वि अट्ठ गमगा पदम गमग सरिसा, नवर-ठिई संदेह च उचउजिऊण जाणेज्जा । एवं जाव अच्चुयदेवा, वरं - ठिई संवेह च उवउंजिऊण जाणेज्जा । आणयासु च वि उववज्जमाणाणं संघयणा तिण्णि । - विया. स. २४, उ. २४, सु. २१-२३ ७५. कप्पातीय वैमाणिय देव उववज्जंतेसु मणुस्साणं उववायाइ वीसं दारं परूवणं प. गेवेज्जगदेवा णं भंते! कओहिंतो उपवज्जति ? उ. गोयमा ! सव्वा वत्तव्वया जहा आणयाणं देवाणं । णवरं - दो संघयणा । ठिई संवेहं च गेवेज्जग देवाणं उवउंजिऊण भाणियव्वं । प. विजय-वेजयंत- जयंत अपराजियदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? उ. गोयमा ! सव्वा वत्तव्वया जहा आणयाणं देवाणं । नवरं पढमं संघयणं । टिई अणुबंधो जहणणेण एकतीस सागरोयमाई, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाई, भवादेसेणं जहणणेण तिष्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेण पंच भवग्गहणाई। कालादेसेण जहणणेणं एकतीसं सागरोवमाई दोहिं वासपुहतेहिं अब्महियाई, अब्भहियाई, उक्कोसेणं उक्कोसेणं छायटिंठ सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । (पढमो गमओ) एवं सेसा वि अट्ठा गमगा भाणियव्वा, नवरं ठिई संदेह च उचउजिऊण जाणेज्जा । प. सव्वट्ठगसिद्धगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? उ. गोयमा ! उबवाओ जहा आणयदेवाणं । प. से णं भंते! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमट्ठिईएसु उक्कोसे व तेत्तीस सागरोवमट्ठिईएसु उववज्जेज्जा । अवसेसा वक्तव्यया जहा विजयाइसु उववज्जंताणं, णवरं भवादेसेणं तिष्णि भवग्गहणाई. द्रव्यानुयोग - (३) कालादेश से जघन्य दो वर्ष पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है) शेष आठ गमक भी प्रथम गमक के समान कहने चाहिए। विशेष- स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक पृथक्-पृथक् जानने चाहिए। इसी प्रकार अच्युतदेवों पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष- इनकी स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक भिन्न-भिन्न कहने चाहिए। आनतादि चार देवलोकों में उत्पन्न होने वालों में (प्रथम के) तीन संहनन होते हैं। ७५. कल्पातीत वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपण प्र. भंते! ग्रैवेयकदेव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! इनका समग्र कथन आणत देवों के समान कहना चाहिए। विशेष इसमें उत्पन्न होने वालों में प्रथम के दो संहनन होते हैं तथा स्थिति और संवेध (इनका अपना-अपना) उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। , , प्र. भंते विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित देव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! इनका भी समग्र कथन आणत देवों के समान है। विशेष- इनमें प्रथम संहनन वाले उत्पन्न होते हैं। स्थिति और अनुबंध जघन्य इकतीस सागरोपम, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम का होता है। भवादेश से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव ग्रहण करते हैं। कालादेश से जघन्य दो वर्ष पृथक्त्व अधिक इकतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक छासठ सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है) शेष आठ गमक भी इसी प्रकार कहने चाहिए। विशेष- इनमें स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। प्र. भंते! सर्वार्थसिद्ध देव कहां से आकर उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! इनका उपपात आदि आणत देवों के समान है। प्र. भते । वे (संज्ञी मनुष्य) कितने काल की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धदेवों में उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे जघन्य तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धदेवों में उत्पन्न होते हैं। शेष कथन विजयादि देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान है। विशेष-भवादेश से तीन भव ग्रहण करता है,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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