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________________ १६६० बिईयगमए (पंचम गमए) अप्पसत्था, तइयगमए (छट्ठ गमए) पसत्था भवंति ।(१-९) एवं आउक्काइयाण वि। एवं वणस्सइकाइयाण वि। एवं जाव चउरिंदियाण वि। असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-असण्णिमणुस्स-सण्णिमणुस्साय सव्वाण वि जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउदेसए वत्तव्वया भणिया तहेव भाणियव्वा। णवरं-परिमाण-अज्झवसाणा नाणत्ताणि जाणिज्जा जहा पुढविकाइयस्स एत्थ चेव उद्देसए भणियाणि।(१-९) -विया. स. २४, उ.२१, सु.५-१२ ६५. मणुस्सेसु उववज्जतेसु कप्पोवगवेमाणिय पज्जत देवाणं उववायाइ वीसं दारं परूवणंप. भंते ! जइ देवेहिंतो उववज्जति-किं भवणवासिदेवेहितो उववज्जति? वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिय देवेहिंतो उववजंति? उ. गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि उववजंति जाव वेमाणियदेवेहिंतो वि उववज्जति। प. भंते ! जइ भवणवासिदेवेहिंतो उववजंति-किं असुरकुमारेहिंतो उववज्जति जाव थणियकुमारेहितो उववज्जति? द्रव्यानुयोग-(३) द्वितीय (पाँचवें) गमक में अप्रशस्त होते हैं और तृतीय (छठे) गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं। (१-९) इसी प्रकार अकायिकों का भी वर्णन करना चाहिए। इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों का भी वर्णन करना चाहिए। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञी मनुष्य, इन सभी का कथन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहे अनुसार करना चाहिए। विशेष-परिमाण और अध्यवसायों की भिन्नता आदि इसी उद्देशक में कहे गए पृथ्वीकायिक के अनुसार समझनी चाहिए। ६५. मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कल्पोपपन्नक वैमानिक पर्यन्त देवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! यदि वे (मनुष्य) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? या वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे (मनुष्य) भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! यदि वे (मनुष्य) भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे असुरकुमार भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे असुरकुमार भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! असुरकुमार भवनवासी देव जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह (असुरकुमार भवनवासी) जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहा है वही समग्र कथन यहाँ करना चाहिए। विशेष-अन्तर्मुहूर्त के स्थान पर मास पृथक्त्व कहना चाहिए। परिमाण में जघन्य (एक, दो या तीन ) और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। (१-९) इसी प्रकार ईशान देव पर्यन्त कहना चाहिए। जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहा है उसी प्रकार सनत्कुमार से सहस्रार देव पर्यन्त का वर्णन यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष-परिमाण में उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य वर्ष पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। स्थिति और कायसंवेध उपयोग पूर्वक कहना चाहिए, यथा उ. गोयमा ! असुरकुमारेहितो वि उववजंति जाव थणियकुमारेहिंतो वि उववज्जंति। प. असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहत्तट्ठिईएसु, कोसेणं पुव्वकोडि आउएसु उववज्जेज्जा। एवं जच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियउदेसए वत्तव्वया सच्चेव एत्थ विभाणियव्वा, णवर-अंतोमुहुत्तट्ठाणे मासपुहत्तट्ठिइ भाणियव्वा, परिमाणं जहण्णेणं (एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा) उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति।(१-९) एवं जावईसाणदेवो ति। सणंकमारादीया जाव सहस्सार देवाणं वत्तव्वया जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए भणिया तहेव भाणियव्वा। णवर-परिमाणं उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति। उववाओ जहण्णेणं वासपुहत्तट्ठिईएसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएसु उववज्जेज्जा। ठिई काय संवेहं च उवउंजिऊण भाणियव्यं, जहा
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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