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________________ गम्मा अध्ययन अवसेसा वत्तव्वया जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उबवणंतस्स रयणप्पभापुढवि णेरइयस्स तहेब जाणेज्जा । नवरं परिमाणे उक्कोसेणं संखेज्जा उवयज्जति । (पढमो गमो ) एवं वसु वि गमएसु वत्तव्यया भाणियव्या णवरं-ठिई संवेहं च उवउंजिऊण भाणियव्वा, अंतमुत्तट्ठाणे सव्वत्थ मासपुहुत्ता भाणियच्या । (१-९) जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि वत्तव्वया, वरं-जहणेणं वासपुहत्तट्ठिईएसु, उक्कोसेणं पुव्यकोडी आउएस मणुस्सेसु उवबज्जेज्जा । ओगाहणा-लेस्सा-नाण-ट्ठिई- अणुबंध-संवेह-नाणत्तं च जाणेज्जा जहेब तिरिक्खजोणियउद्देसए। एवं कमेण जाव तमापुढविनेरइए । -विया. २४, उ. २१, सु. २-४ ६४. मणुस्सेसु उववज्जंतेसु तिरिक्खजोणिय मणुस्साणं उववायाइ वीसं दारं परूवणं प. भते ! जड़ तिरिक्खजोणिएहिंतो उबवज्जति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्ज्जति जाव पाँचदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवज्जति ? उ. गोयमा ! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए । णवरं तेउ-वाऊ पडिसेहेयव्वा । प. पुढविक्काइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवइयं कालट्ठिईएस उचवज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहतट्ठिईएस, उक्कोसेणं पुव्यकोडी आउएस उववज्जेज्जा । प. ते णं भंते! जीवा एगसमएण केवइया उबवज्जति ? उ. गोयमा ! जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स पुढविक्काइयस्स वत्तव्वया सा चेव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियव्वं नवसु वि गमएसु, नवरं तइय छट्ठ-नवमेसु गमएस परिमाणं जहण्णेणं एक्को वा दो था, तिणि वा, उक्कोसेण संखेज्जा उवयञ्जति। अप्पा जहणका लट्ठिईओ भवइ ताहे पढमगमए (चउत्थ गमए) अज्झवसाणा पसत्था वि, अप्पसत्था वि। १६५९ शेष कथन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक में उत्पन्न होने वाले रत्नप्रभा के नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष- परिमाण में ये जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। (यह प्रथम गमक है) इसी प्रकार नौ ही गम्मों का कथन करना चाहिए । विशेष स्थिति अनुबन्ध और संवेध उपयोग पूर्वक कहने चाहिए, अन्तर्मुहूर्त के स्थान पर सर्वत्र मास पृथक्त्व कहना चाहिए। (१-९) जैसे रत्नप्रभा का कथन किया गया वैसे ही शर्कराप्रभा का कहना चाहिए। विशेष- ये जघन्य वर्षपृथक्त्व की तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। अवगाहना, लेश्या, ज्ञान, स्थिति, अनुबन्ध और संबंध की विशेषताएँ तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहे अनुसार जाननी चाहिए। इसी प्रकार इसी क्रम से तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिकों पर्यन्त कथन करना चाहिए। ६४. मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपण प्र. भन्ते ! यदि वे (मनुष्य) तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि भेदों का कथन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए। विशेष- यहाँ पर तेजस्काय और वायुकाय का ग्रहण नहीं करना चाहिए (क्योंकि ये दोनों मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते) प्र. भन्ते ! जो पृथ्वीकायिक मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जैसा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक का कथन है वैसा ही यहाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक का वर्णन भी नौ ही गमकों में करना चाहिए। विशेष- तीसरे छठे और नौवें गमक में परिमाण जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना चाहिए। जब वह अपनी जघन्यकाल की स्थिति में हो, तब (मध्य के तीन गमकों में से) प्रथम (चौथे) गमक में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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