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________________ १६४८ सो चैव जहण्णकालटिईएस उववण्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्ठिईएसु उववण्णो, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तट्ठिईएसु उववण्णो । सेसं जहा पढम गमओ, णवर-कालादेसेणं जहणणं दसवाससहस्साई अंतोमुहतेहिं अमहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोदमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं; एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं काल गतिरागति करेजा (बिइओ गमओ) एवं सेसा वि सत्त गमगा वि उबवाय ठिई संदेहं च उवउंजिऊण भाणियव्वा । (३-९) प. सक्करप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! जहा रयणप्पभाए नव गमगा भणिया तहेव सक्करपभाए वि भाणियव्या णवर सरीरोगाहणारयणप्पभाए दुगुणा भाणियव्वा । तिष्णि नाणा, तिणि अण्णाणा नियमा उपवाच ठिई अणुबंधो संवेहो य उबउंजिऊण भाणियब्ब । (१.९) एसा चैव बत्तव्यया जाव छट्ठपुढवी, णवरं जस्स जा ओगाहणा-लेस्सा सा भाणियव्वा, उववाय ठिई अणुबंधो संवेहो य उवउंजिऊण भाणियव्वो (१-९) प. अहेसत्तमपुढवीनेरइए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! नव वि गमगाणं वत्तव्वया जहा रयणप्पभा पुढवी, णवरं - ओगाहणा-लेस्सा उबवाय-टिई अणुबंधा उवडजिऊण भाणियव्या । आदिल्लएसु छसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई । पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई। य पदम गमए- कालादेसेणं जहणेण बाबीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तममहियाई, उक्कोसेण छावठि सागरोवमाई तिहिं पुव्यकोडीहि अमहियाई एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । विइय गमए-जहणेणं बावीस सागरोवमाई अंतोमुहुतमन्महियाई उक्कोसेणं छावठि सागरोवगाई तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । द्रव्यानुयोग - (३) वही ( रत्नप्रभा - नैरयिक) जघन्य काल की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) में उत्पन्न हो तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। शेष वर्णन प्रथम गमक के समान कहना चाहिए। विशेष - कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह दूसरा गमक है) इसी प्रकार (जैसे नैरयिक उद्देशक में संज्ञी पंचेन्द्रियों का कथन किया उसी प्रकार यहां भी) शेष सात गमक में उपपात स्थिति संवेध उपयोग पूर्वक जानने चाहिए (३-९) प्र. भन्ते! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरविक जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है तो वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नौ गमक कहे हैं वैसे ही शर्कराप्रमापृथ्वी के भी नी गमक कहने चाहिए। विशेष - शरीर की अवगाहना रत्नप्रभा नरक से दुगुनी कहनी चाहिये। उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। उपपात स्थिति अनुबन्ध और संवेध नौ ही गमकों में उपयोग पूर्वक कहने चाहिए। (१-९) इसी प्रकार छठी नरक पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष- जिसके जितनी अवगाहना, लेश्या है वह कहनी चाहिए। उपपात स्थिति अनुबन्ध और संवेध यथायोग्य उपयोग पूर्वक जानने चाहिए। (१-९) प्र. भन्ते ! अधः सप्तम पृथ्वी का नैरयिक जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक में उत्पन्न होने योग्य है तो वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! इसके भी नौ गमक रत्नप्रभा पृथ्वी के समान कहने चाहिए। विशेष - अवगाहना, लेश्या, उपपात स्थिति और अनुबन्ध उपयोग पूर्वक जानने चाहिए। आदि (प्रथम) के छह गमकों (१-६) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव ग्रहण करता है। अन्तिम तीन गमकों (७-८-९) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव ग्रहण करता है। · प्रथम गमक में कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक छासठ सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। द्वितीय गमक में- कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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