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________________ १६०८ प. ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जावा, असंखेज्जा वा उववज्जति । अबसेस जहेब ओहिय गमएणं तहेब अणुगंतव्यं, णवर - इमाई दोण्णि नाणत्ताई १. ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी । २. एवं अणुबंध वि प. से णं भंते! उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभापुढवि नेरइए पुणरवि पज्जत्ता असण्णिपंचिदिय तिरिक्खजोणिए उक्कोस कालठिईए केवइयं कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा ? उ. गोयमा ! भवादेसेण दो भवग्गहणाई, कालादेसेण जहणेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं पलिऔवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्यकोडीए अब्भहियं एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । ( ७ सत्तमो गमओ) प. उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएसु रयणप्पभापुढविनेरइएस उववज्जित्तए से णं भते! केवइयकालडिईएस उववज्जेज्जा ? " उ. गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा । प. ते णं भते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? उ. गोयमा जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिष्णि वा उक्कोसेण संखेज्जा था, असंखेज्जा वा उववज्जति। , सेसं तं चैव जहा सत्तम गमए जाव अणुबंधो ति । प से णं भंते! उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्ता असण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिए जहण्णकालडिईयरयणयभापुढवि नेरइए पुणरवि पज्जत्ता असण्णिपर्थिदियतिरिक्खजोणिय उल्कोसकालठिए केवइयं कालं सेवेजा, केवइयं कालं गतिरागति करेजा ? उ. गोयमा ! भवादेसेण दो भवग्गहणाई, कालादेसेण जहण्णेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । (८ अड्डुमो गमओ) प. उक्कोसकालड्डिईयपञ्जत्ता असण्णिपचिवियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए उक्कोसकालडिईएस रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्ञ्जित्तए से णं ते! केवइयकालईिएस उववज्जेज्जा ? द्रव्यानुयोग - (३) प्र. भंते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सारा कथन औधिक (प्रथम) गमक के अनुसार कहना चाहिए। विशेष- इन दो बोलों में अन्तर है। १. स्थिति - जघन्य पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि वर्ष की है। २. अनुबन्ध - इसी प्रकार (स्थिति के समान) है। प्र. भंते! वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक रूप में उत्पन्न हो तो वह वहां कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? उ. गौतम ! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह सातवां गमक है) प्र. उ. प्र. भंते! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव जो जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। भंते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सब कथन जैसा सप्तम गमक में कहा गया है, उसी प्रकार यहां भी अनुबन्ध पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी का नैरयिक होकर पुनः उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक रूप में उत्पन्न हो तो वह वहां कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? उ. गौतम! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन भी करता है। (यह आठवां गमक है) प्र. भंते! उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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