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________________ गम्मा अध्ययन प. १९. से णं भंते! पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। प. २०. से णं भंते! पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए रयणप्पभाए पुढवीए नेरइए, पुणरवि पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए त्ति केवइयं कालं सेवेज्जा? केवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा? उ. गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडिमब्भहियं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (पढमो गमओ) प. १. पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवइकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. २.ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववति ? १६०५ प्र. १९. भंते! वे जीव पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में कितने काल तक रहते हैं ? उ. गौतम! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पूर्वकोटि तक (उस अवस्था में) रहते हैं। प्र. २०. भंते! वह पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के रूप में उत्पन्न हो तो कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गति-आगति (गमनागमन) करता है? उ. गौतम! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन भी करता है। (यह प्रथम गमक है) प्र. १. भंते! जो पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जघन्यकाल स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम! वे जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। प्र. २. भंते! वे रत्नप्रभापृथ्वी में (असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम! वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ३-१९. इसी प्रकार अनुबन्ध पर्यन्त समग्र कथन प्रथम गमक के समान कहना चाहिए। प्र. २०. भंते! वह पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के रूप में उत्पन्न हो तो कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गति-आगति (गमनागमन) करता है? उ. गौतम! वे भवादेश से दो भव-ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन भी करता है (यह दूसरा गमक है) उ. गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। ३-१९. एवं सच्चेवपढमगमगवत्तव्यया निरवसेसा भाणियव्या जाव अणुबंधो त्ति। प. २०. से णं भंते! पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए जहण्णकालट्ठिईयरयणप्पभापुढविनेरइए, पुणरवि पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए त्ति केवइय कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा? उ. गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहण्णाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं पुव्वकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अब्भहिया, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (२ बिइओ गमओ) प. १. पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए उक्कोसकालट्ठिईएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! केवइकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागट्टिईएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. २.ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? प्र. १. भंते! जो पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम! वह जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। प्र. २. भंते! वे असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम! जघन्य एक, दो या तीन उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। उ. गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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