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________________ गम्मा अध्ययन उ. गोयमा! सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जंति, असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववज्जति। प. भंते! जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, किंजलचरेहिंतो उववज्जति? थलचरेहिंतो उववज्जति, खहचरेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा! जलचरेहिंतो वि उववज्जति, थलचरेहिंतो वि उववज्जंति, खहचरेहिंतो वि उववज्जति। प. भंते!जइ जलचर-थलचर-खहचरेहिंतो उववज्जति, किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति? अपज्जत्तएहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति, नो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जंति। -विया. स. २४, उ. १, सु. ३ (१-५) ३. नरय उववज्जतेसु पज्जत्त असन्नि पंचेंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववायाइ वीसं दारं परूवणंप. १. पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, सेणं भंते! कतिसु पुढवीसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववज्जेज्जा। प. पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! केवइकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्टिईएसु उववज्जेज्जा। १६०३ उ. गौतम! वे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते! यदि वे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? स्थलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं, या खेचरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम! वे जलचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, स्थलचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, खेचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते! यदि वे जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम! वे पर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। प. २.ते णं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा,असंखेज्जा वा उववज्जति। प. ३.तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरगा किं संघयणा पण्णत्ता? उ. गोयमा! छेवट्ठसंघयणा पण्णत्ता। प. ४. तेसि णं भंते! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स अंसखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। प. ५.तेसिणं भंते!जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता? ३. नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. १. भंते! पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव जो नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है वह कितनी नरक-पृथ्वियों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम! वह एक रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है। प्र. भंते! पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते! वह कितने काल की स्थिति वाले (नैरयिकों) में उत्पन्न होता है? उ. गौतम! वह जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले (नैरयिकों) में उत्पन्न होता है। प्र. २. भंते! वे (पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव . रत्नप्रभापृथ्वी में) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम! वे (एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। प्र. ३. भंते! उन जीवों के शरीर किस संहनन वाले कहे गए हैं? उ. गौतम! वे सेवार्तसंहनन वाले कहे गए हैं। प्र. ४. भंते! उन जीवों के शरीरों की अवगाहना कितनी ऊंची कही गई है? उ. गौतम! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक हजार योजन की कही गई है। प्र. ५. भंते! उन जीवों के शरीरों का संस्थान कौनसा कहा गया है? उ. गौतम! उनका हुण्डसंस्थान कहा गया है। . प्र. ६. भंते! उन जीवों के कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? उ. गौतम! उनके तीन लेश्याएं कही गई हैं यथा १. कृष्ण लेश्या, २.नील लेश्या, ३. कापोत लेश्या। उ. गोयमा! हुंडसंठाणसंठिया पण्णत्ता। प. ६.तेसिणं भंते!जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा! तिण्णि लेस्साओ पण्णत्ताओ,तं जहा १.कण्हलेस्सा,२.नीललेस्सा,३.काउलेस्सा।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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