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________________ गम्मा अध्ययन : आमुख यह एक विशिष्ट अध्ययन है जिसमें २४ दण्डकों के जीवों के पारस्परिक गमनागमन (गति-आगति) के आधार पर उत्पाद आदि २० द्वारों का वर्णन है। यह अध्ययन मुख्यतः व्याख्या प्रज्ञप्ति के २४वें शतक पर आधारित है। इस अध्ययन को समझने में गति, व्युत्क्रान्ति, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, कषाय, इन्द्रिय, समुद्घात, वेद आदि अध्ययन सहायक हैं। अतः पाठक इस अध्ययन के विषय को समझने के लिए उपयुक्त अध्ययनों की विषय-सामग्री का आलम्बन ले सकते हैं। चौबीस दण्डक हैं-नैरयिकों का एक, दस भवनवासी देवों के १0, पाँच स्थावरों के ५, विकलेन्द्रियों के ३, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का एक, मनुष्य का एक, वाणव्यन्तर देवों का एक, ज्योतिष्क देवों का एक एवं वैमानिक देवों का एक। इन चौबीस दण्डकों में परस्पर गति-आगति अथवा व्युत्क्रान्ति के आधार पर क्रमशः निम्नाङ्कित २० द्वारों से निरूपण ही इस अध्ययन का प्रमुख प्रतिपाद्य है। २० द्वार हैं-१. उपपात, २. परिमाण (संख्या), ३. संहनन, ४. उच्चत्व (अवगाहना), ५. संस्थान, ६. लेश्या, ७. दृष्टि, ८. ज्ञान-अज्ञान, ९. योग, १0. उपयोग, ११. संज्ञा, १२. कषाय, १३. इन्द्रिय, १४. समुद्घात, १५. वेदना, १६. वेद, १७. आयुष्य, १८. अध्यवसाय, १९. अनुबन्ध और २०. कायसंवेध। उपपात द्वार के अन्तर्गत यह विचार किया गया है कि अमुक दण्डक का जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होता है ? परिमाण द्वार में उनकी उत्पत्ति की संख्या के सन्दर्भ में विचार किया गया है। संहनन द्वार के अन्तर्गत अमुक दण्डक में उत्पन्न होने वाले (किन्तु अधुना यावत् अनुत्पन्न) जीव के संहननों की चर्चा है। उच्चत्व द्वार में वर्तमान भव की अवगाहना का वर्णन किया गया है। संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय एवं समुद्घात द्वारों में भी उत्पद्यमान जीव में इनकी सम्बद्ध प्ररूपणा है। वेदना द्वार में साता एवं असाता वेदना का तथा वेद द्वार में स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद का विचार किया गया है। आयुष्य द्वार के अन्तर्गत 'स्थिति की चर्चा है। अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं-प्रशस्त एवं अप्रशस्त। जो जीव जिस दण्डक में उत्पन्न होने वाला होता है उसके अनुसार ही उसके प्रशस्त (शुभ) या अप्रशस्त (अशुभ) अध्यवसाय (भाव) पाए जाते हैं। अनुबन्ध एवं कायसंवेध ये दो द्वार इस अध्ययन में सर्वथा विशिष्ट प्रतीत होते हैं। अनुबंध का तात्पर्य है विवक्षित पर्याय का अविच्छिन्न (निरन्तर) बने रहना तथा कायसंवेध का तात्पर्य है वर्ण्यमान काय से दूसरी काय में या तुल्यकाय में जाकर पुनः उसी काय में लौटना। कायसंवेध द्वार का विचार भवादेश एवं कालादेश की अपेक्षा दो प्रकार का है। ___ उपर्युक्त २० द्वारों के माध्यम से प्रत्येक दण्डक के विविध प्रकार के जीवों की जो जानकारी इस अध्ययन में संकल्पित है वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं युक्तिसंगत है। इस अध्ययन का अनुशीलन करने से तत्त्वज्ञों की अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। क्योंकि इसमें जो प्रतिपादन है वह विस्तृत होने के कारण सूक्ष्मता एवं गहराई तक ले जाता है। प्रारम्भ में गति की अपेक्षा नैरयिकों के उपपात का वर्णन है जिससे यह स्पष्ट होता है कि नरक में तिर्यञ्च एवं मनुष्य गति के ही जीव आकर उत्पन्न होते हैं, नैरयिक एवं देवों के नहीं। तिर्यञ्च में भी पंचेन्द्रिय के असंज्ञी तथा संज्ञी के पर्याप्तक जीव ही नरक में उत्पन्न होते हैं। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा से तमःप्रभा पर्यन्त एवं अधःसप्तम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी संख्यात वर्षायुष्क पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों का उपपात आदि २० द्वारों में विस्तृत निरूपण है। इसी प्रकार इन नरकों में पर्याप्त संज्ञी संख्यात वर्षायुष्क मनुष्यों का २० द्वारों से वर्णन है। __इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमार एवं अन्य भवनवासी देवों में उत्पद्यमान पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों, संख्यात एवं असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों, संख्यात एवं असंख्यात वर्षायुष्क मनुष्यों का भी २० द्वारों से निरूपण है। पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले २३ दण्डकों (नरक को छोड़कर) तथा अप्काय एवं वनस्पतिकाय में उत्पन्न होने वाले २३ दण्डकों (नरक को छोड़कर) तथा अप्काय एवं वनस्पतिकाय में उत्पन्न होने वाले २३ दण्डकों का भी २० द्वारों से निरूपण हुआ है। तेजस्काय एवं वायुकाय में उत्पद्यमान औदारिक के १० दण्डकों (५ स्थावर, ३ विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य) का भी उपपात आदि द्वारों से निरूपण उपलब्ध है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय में भी औदारिक के १० दण्डकों के जीव ही उत्पन्न होते हैं। इनका भी इसी प्रकार बीस द्वारों से सूक्ष्म वर्णन हुआ है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में २४ ही दण्डक के जीव उत्पन्न होते हैं, किन्तु वैमानिकों में सहस्रार देवलोक (आठवें) तक के देव ही तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं। इन सबका भी उपपात आदि २० द्वारों से विचार हुआ है। मनुष्य के दण्डक में उत्पन्न होने वाले २२ दण्डकों (तेजस् एवं वायुकाय को छोड़कर) का उन्हीं २० द्वारों से निरूपण महत्त्वपूर्ण है। रत्नप्रभा से तमःप्रभा पृथ्वी पर्यन्त के नैरयिकों, तिर्यञ्चयोनिकों एवं मनुष्यों, कल्पोपन्नक वैमानिक पर्यन्त देवों एवं कल्पातीत वैमानिक देवों की मनुष्य में उत्पत्ति बतलायी गयी है। सातवीं नरक के नैरयिक मनुष्य के रूप में उत्पन्न नहीं होते हैं। (१६००)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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