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________________ युग्म अध्ययन उ. गोयमा ! उववाओ तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो। परिमाणं, अवहारो, उच्चत्तं, बंधो, वेदो, वेदणं, उदयी, उदीरणा य जहा कण्हलेस्ससए। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्ममिच्छादिट्ठी। नो नाणी, अन्नाणी। एवं जहा कण्हलेस्ससए, णवरं-नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया। संचिट्ठणा, ठिई य जहा ओहियुद्देसए। समुग्घाया आइल्लगा पंच। उव्वट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्ज। प. भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता पुव्वोववन्ना? उ. गोयमा ! णो इणढे सम्मटे, सेसं जहा कण्हलेस्ससए जाव अणंतखुत्तो। । १५९१) उ. गौतम ! अनुत्तरविमानों को छोड़कर शेष सभी स्थानों में पूर्ववत् उपपात जानना चाहिए। इनका परिमाण, अपहार, ऊँचाई, बन्ध, वेद, वेदन, उदय और उदीरणा कृष्णलेश्या शतक के समान है। वे कृष्णलेश्यी से शुक्ललेश्यी पर्यन्त छहों लेश्या वाले होते हैं। बे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी नहीं होते, अज्ञानी होते हैं। इसी प्रकार सब कृष्णलेश्यी शतक के समान है। विशेष-वे विरत और विरताविरत नहीं होते, किन्तु अविरत होते हैं। इनका संचिट्ठणाकाल और स्थिति औधिक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। इनमें आदि के पाँच समुद्घात पाये जाते हैं। अनुत्तरविमानों को छोड़कर पूर्ववत् उद्वर्तना जानना चाहिए। प्र. भंते ! क्या सर्व प्राण यावत् सर्व सत्व पूर्व में उत्पन्न हुए हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शेष कृष्णलेश्या शतक के समान अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार सोलह ही युग्मों के लिए जानना चाहिए। प्र. भंते ! प्रथमसमयोत्पन्न अभवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! प्रथम समय के संज्ञी उद्देशक के अनुसार सर्वत्र जानना चाहिए, विशेष-सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और ज्ञान सर्वत्र नहीं होता। शेष कथन पूर्ववत् है। इसी प्रकार इस शतक में भी ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए। इनमें से प्रथम, तृतीय एवं पंचम ये तीनों उद्देशक समान पाठ वाले हैं। शेष आठ उद्देशक भी एक समान हैं। एवं सोलससु वि जुम्मेसु। प. पढमसमय-अभवसिद्धिय-कडजुम्मकडजुम्म सन्नि-पंचेंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा !जहा सन्नीणं पढमसमयुद्देसए तहेव, णवरं-सम्मत्तं,सम्मामिच्छत्तं, नाणं च सव्वत्थ नत्थि। सेसं तहेव। एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा, पढम-तइय-पंचमा एक्कगमा। सेसा अट्ठ वि एक्कगमा। -विया. स.४०,१५/स.पं., उ.१-११ प. कण्हलेस्स-अभवसिद्धिय-कडजुम्म-कडजुम्म-सन्नि पंचेंदिया णं भंते !कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! जहा एएसिं चेव ओहियसयं तहा कण्हलेस्ससयंपि,णवरं प. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? उ. हता,गोयमा ! कण्हलेस्सा। ठिई संचिट्ठणा य जहा कण्हलेस्ससए। सेसं तं चेव। -विया.स. ४०,१६सं.पं.,उ.१-११ एवं छहि विलेसाहिं छ सया कायव्वा जहा कण्हलेस्ससयं, प्र. भंते ! कृष्णलेश्यी-अभवसिद्धिक-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जिस प्रकार इनका औधिक शतक कहा है उसी प्रकार कृष्णलेश्यी शतक जानना चाहिए, विशेषप्र. भंते ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? उ. हां, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। इनकी स्थिति और संचिट्ठणाकाल कृष्णलेश्या शतक के समान है, शेष कथन पूर्ववत् है। जिस प्रकार कृष्णलेश्या-सम्बन्धी शतक कहा, उसी प्रकार छहों लेश्या सम्बन्धी छह शतक कहने चाहिए। विशेष-संचिट्ठणाकाल और स्थिति का कथन औधिक शतक के समान करना चाहिए। विशेष-शुक्ललेश्यी का उत्कृष्ट संचिट्ठणाकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक इकतीस सागरोपम है। णवरं-संचिट्ठणा, ठिई य जहेव ओहिएसु तहेव भाणियव्वा, णवर-सुक्कलेसाए उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तममहियाई,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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