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प. परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते कइ भवग्गहणाई
होज्जा ?
उ. गोयमा ! जहन्नेण एक्कं उक्कोसेण- तिन्ति ।
एवं जाव अहखायसंजए।
"
२८. आगरिस- दारं
प. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं- एक्को, उक्कोसेणं-सवग्गसो प. छेदोवट्ठावणियस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं - एक्को, उक्कोसेणं-बीसपुहुत्तं ।
प. परिहारविसुद्धियस्स णं भंते! एग भवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेण- तिन्नि ।
प. सुहुमसंपरायस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि । - । प. अहक्खायस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं-एक्को, उक्कोसेणं-दोन्नि ।
प सामाइयसंजयस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया केवडया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेणं- सहस्ससो ।
प. छेदोवद्रावणियस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया कैवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं-दोन्नि,
उक्कोसेण उचरिं नवहं सयाणं अंतोसहस्सस्स ।
-
परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं-दोन्नि,
उक्कोसेणं सत्त
सुहमसंपरायस्स, जहन्ने दोन्नि,
उक्कोसेणं - नव ।
अहक्खायस्स जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेणं पंच
२९. काल - दारं
प. सामाइयसंजए न भते ! कालओ केवचिर होइ ?
उ. गोयमा ! जहन्नेणं-एक्कं समयं,
उक्कोसेण-नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी । एवं छेदोवट्ठावणिए वि ।
द्रव्यानुयोग - ( २ )
प्र. भन्ते परिहारविशुद्धिक संयत कितने भव ग्रहण करता है ?
उ. गौतम ! जघन्य - एक भव, उत्कृष्ट तीन भव । इसी प्रकार यथाख्यात संयत पर्यन्त जानना चाहिए। २८. आकर्ष-द्वार
प्र. भन्ते ! सामायिक संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं अर्थात् एक भव में कितनी बार प्राप्त होता है ?
उ.
प्र.
उ. गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट - बीस पृथक्त्व अर्थात् १२० बार प्राप्त होता है।
प्र. भन्ते परिहारविशुद्धिक संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं ?
गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट तीन ।
भन्ते ! सूक्ष्म संपराय संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं ?
उ.
प्र.
गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट - सैकड़ों बार प्राप्त होता है। भन्ते ! छेदोपस्थापनीय संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गये हैं?
उ.
प्र.
उ.
प्र.
गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट चार ।
भन्ते ! यथाख्यात संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं?
गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट-दो ।
भन्ते ! सामायिक संयत के नाना भव ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं? अर्थात् अनेक (आठ) भवों में कितने बार प्राप्त होता है ?
उ.
गौतम ! जघन्य - दो, उत्कृष्ट - हजारों बार प्राप्त होता है। प्र. भन्ते ! छेदोपस्थापनीय संयत के नाना भव में ग्रहण करने
योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं?
उ. गौतम ! जघन्य-दो,
उत्कृष्ट-नौ सौ से ऊपर और एक सहस्र के अन्तर्गत अर्थात ९८० बार प्राप्त होता है।
परिहारविशुद्धिक संयत के जघन्य-दो आकर्ष,
उत्कृष्ट - सात आकर्ष ।
सूक्ष्म संपराय संयत के जघन्य-दो आकर्ष,
उत्कृष्ट - नव आकर्ष ।
यथाख्यात संयत के जघन्य-दो आकर्ष, उत्कृष्ट पाँच आकर्ष कहे गये हैं।
२९. काल -द्वार
प्र. भन्ते ! सामायिक संयत काल से कितने समय तक रहता है ?
उ. गौतम ! जघन्य- एक समय,
उत्कृष्ट नौ वर्ष कम क्रोड पूर्व
इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी जानना चाहिए।