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________________ ८३६ प. परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते कइ भवग्गहणाई होज्जा ? उ. गोयमा ! जहन्नेण एक्कं उक्कोसेण- तिन्ति । एवं जाव अहखायसंजए। " २८. आगरिस- दारं प. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं- एक्को, उक्कोसेणं-सवग्गसो प. छेदोवट्ठावणियस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं - एक्को, उक्कोसेणं-बीसपुहुत्तं । प. परिहारविसुद्धियस्स णं भंते! एग भवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेण- तिन्नि । प. सुहुमसंपरायस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि । - । प. अहक्खायस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं-एक्को, उक्कोसेणं-दोन्नि । प सामाइयसंजयस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया केवडया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेणं- सहस्ससो । प. छेदोवद्रावणियस्स णं भंते! नाणाभवग्गहणिया कैवइया आगरिसा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेण उचरिं नवहं सयाणं अंतोसहस्सस्स । - परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेणं सत्त सुहमसंपरायस्स, जहन्ने दोन्नि, उक्कोसेणं - नव । अहक्खायस्स जहन्नेणं-दोन्नि, उक्कोसेणं पंच २९. काल - दारं प. सामाइयसंजए न भते ! कालओ केवचिर होइ ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं-एक्कं समयं, उक्कोसेण-नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । द्रव्यानुयोग - ( २ ) प्र. भन्ते परिहारविशुद्धिक संयत कितने भव ग्रहण करता है ? उ. गौतम ! जघन्य - एक भव, उत्कृष्ट तीन भव । इसी प्रकार यथाख्यात संयत पर्यन्त जानना चाहिए। २८. आकर्ष-द्वार प्र. भन्ते ! सामायिक संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं अर्थात् एक भव में कितनी बार प्राप्त होता है ? उ. प्र. उ. गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट - बीस पृथक्त्व अर्थात् १२० बार प्राप्त होता है। प्र. भन्ते परिहारविशुद्धिक संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं ? गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट तीन । भन्ते ! सूक्ष्म संपराय संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं ? उ. प्र. गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट - सैकड़ों बार प्राप्त होता है। भन्ते ! छेदोपस्थापनीय संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गये हैं? उ. प्र. उ. प्र. गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट चार । भन्ते ! यथाख्यात संयत के एक भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं? गौतम ! जघन्य - एक, उत्कृष्ट-दो । भन्ते ! सामायिक संयत के नाना भव ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं? अर्थात् अनेक (आठ) भवों में कितने बार प्राप्त होता है ? उ. गौतम ! जघन्य - दो, उत्कृष्ट - हजारों बार प्राप्त होता है। प्र. भन्ते ! छेदोपस्थापनीय संयत के नाना भव में ग्रहण करने योग्य कितने आकर्ष कहे गए हैं? उ. गौतम ! जघन्य-दो, उत्कृष्ट-नौ सौ से ऊपर और एक सहस्र के अन्तर्गत अर्थात ९८० बार प्राप्त होता है। परिहारविशुद्धिक संयत के जघन्य-दो आकर्ष, उत्कृष्ट - सात आकर्ष । सूक्ष्म संपराय संयत के जघन्य-दो आकर्ष, उत्कृष्ट - नव आकर्ष । यथाख्यात संयत के जघन्य-दो आकर्ष, उत्कृष्ट पाँच आकर्ष कहे गये हैं। २९. काल -द्वार प्र. भन्ते ! सामायिक संयत काल से कितने समय तक रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य- एक समय, उत्कृष्ट नौ वर्ष कम क्रोड पूर्व इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी जानना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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