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________________ १५३३ वुक्कंति अध्ययन १०५. भगवओसओ-परओ वा जाणणा-परूवणंप. द. १-२४. सयं भंते ! एतेवं जाणह, उदाहु असय, असोच्चा एतेतं जाणह, उदाहु सोच्चा "सओ नेरइया उववज्जंति, नो असओ नेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति?" उ. गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा "सओ नेरइया उववज्जति, नो असओ नेरइया उववति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति।" प. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ "सयं एतेवं जाणामि नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि नो सोच्चासओ नेरइया उववज्जति, नो असओ नेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति? उ. गंगेया ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि जाणइ (पासइ) अमियं पि जाणइ (पासइ)। १०५. भगवान् की स्वतः परतःजानने का प्ररूपण प्र. दं. १-२४. भंते ! आप इसे स्वयं (स्वज्ञान से) इस प्रकार जानते हैं या अस्वयं (पर के ज्ञान से) इस प्रकार जानते हैं ? तथा बिना सुने ही इसे इस प्रकार जानते हैं या सुनकर इस प्रकार जानते हैं कि"सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक उत्पन्न नहीं होते हैं यावत् सत् वैमानिको में से च्यवन होते हैं, असत् वैमानिकों में से च्यवन नहीं होते हैं ? उ. गांगेय ! यह सब मैं स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं जानता हूँ। तथा बिना सुने ही मैं इसे इस प्रकार जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता हूँ कि"सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक उत्पन्न नहीं होते हैं यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा है कि "मैं स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं जानता हूँ बिना सुने ही जानता हूँ, सुनकर नहीं जानता हूँ कि"सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक उत्पन्न नहीं होते हैं यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं?" उ. गांगेय ! केवली भगवान् पूर्व दिशा की मित (मर्यादित) वस्तु को भी जानते देखते हैं और अमित (अमर्यादित) वस्तु को भी जानते-देखते हैं, इसी प्रकार दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा की मित वस्तु को भी जानते देखते हैं और अमित वस्तु को भी जानते देखते हैं। केवलज्ञानी सब (द्रव्यों को) जानते हैं और सब (द्रव्यों) देखते हैं। केवली भगवान् सर्वपर्यायों को जानते हैं और सर्वपर्यायों को देखते हैं। केवली भगवान् सब कालों को जानते हैं और देखते हैं तथा सर्वकाल में जानते देखते हैं, केवली सर्वभावों (गुणों) को जानते और सर्वभावों को देखते हैं। केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) के अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन होते हैं। केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन निरावरण (सभी प्रकार के आवरणों से रहित) होता है। इस कारण से गांगेय ! ऐसा कहा जाता है कि"यह सब मैं स्वयं जानता हूँ अस्वयं नहीं जानता हूँ, बिना सुने ही जानता हूँ सुनकर नहीं जानता हूँ किसत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक उत्पन्न नहीं होते हैं यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं।" एवं दाहिणे णं, पच्चत्थिमे णं, उत्तरेणं, उड्ढं, अहे मियं पिजाणइ,अमियं पिजाणइ। सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ केवली। सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ केवली। सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ केवली। अणंते नाणे केवलिस्स,अणते दसणे केवलिस्स। निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स। से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ“सयं एतेवं जाणामि नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चासओ नेरइया उववज्जति, नो असओ नेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति।" -विया. स. ९, उ.३२, सु.५२
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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