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________________ १५२४ २-६. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा,(६) १. अहवा दो रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए वा होज्जा, २-६. एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा।(१२) १३. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं एक्केक्को संचारेयव्यो जाव अहवा दस रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दस रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमपुढवीहिं समंचारिया, एवं सक्करप्पभा वि उवरिमपुढवीहिं समंचारेयव्या, द्रव्यानुयोग-(२) २-६. इसी प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (ये ६ भंग हुए।) १. अथवा दो रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। २-६. इसी प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (ये भी ६ भंग हुए।) (१२) १३. अथवा तीन रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इसी क्रम से एक-एक नारक का संचार करना चाहिए यावत अथवा दसरलप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यावत् अथवा दस रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा एक शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी का शेष नरकपृथ्वियों के साथ संयोग कियाउसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी का भी आगे की सभी नरक-पृथ्वियों के साथ संयोग करना चाहिए। इसी प्रकार (वालुकाप्रभा आदि) प्रत्येक पृथ्वियों का आगे की सभी नरक-पृथ्वियों के साथ संयोग करना चाहिए, यावत् अथवा संख्यात तमःप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (१३-२३) (त्रिक संयोगी ७३५ भंग) १. अथवा एक रलप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। २. अथवा एक रलप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में उत्पन्न होते हैं। ३-५. इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (५) १. अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। २-५. इसी प्रकार यावत् अथवा एक रलप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इसी क्रम से एक-एक नारक का अधिक संचार करना चाहिए। अथवा एक रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। एवं एक्केक्का पुढवी उवरिमपुढवीहिं समं चारेयव्या। जाव अहवा संखेज्जा तमाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा,(२३१) १. अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। २. अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा, ३-५. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा।(५) १.अहवा एगे रयणप्पभाए, दो सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, २-५. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, दो सक्करप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए, तिण्णि सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एक्केक्को संचारेयव्यो। अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, १. इस प्रकार द्विकसंयोगी भंगों की कुल संख्या २३१ हुई।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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