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________________ दुक्कंति अध्ययन उ. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव असत्तमाए वा होज्जा । १-८. अहवा एगे रयणप्पभाए अट्ठ सक्करप्पभाए होज्जा । एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा अहं भणियं तहा नवहं पि भाणियव्यं । वरं - एक्केक्को अब्महिओ संचारेयव्वो, सेसं तं चेव, पच्छिमो आलायगो अहवा तिणि रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयचभाए जाव एगे अहेसत्तमाए वा होज्जा, (५००५) - विया. स. ९, उ. ३२, सु. २४ ९२. दस नेरइयाणं विवक्खा प. दस भंते! नेरइया नेरइययवेसणए णं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? उ. १-७. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, नव सक्करप्पभाए होज्जा । एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा नवहं, नवर- एक्केक्को अन्महिओ संचारेयव्यो । सेयं तं थे। अपच्छिम आलावगो अहवा चत्तारि रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए जाव एगे असत्तमाए होज्जा । (८००८) -विया. स. ९, उ. ३२, सु. २५ ९३. खेज नेरइयाणं विवक्खा प. संखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणए णं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? उ. १-७. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए या होज्जा, 9. अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, १५२३ उ. गांगेय ! वे नौ नैरयिक जीव रत्नप्रभा में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् अधः सप्तमपृथ्वी में भी उत्पन्न होते हैं। १८. अथवा एक रत्नप्रभा में और आठ शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार डिकसंयोगी से सप्त संयोगी पर्यन्त भंग कहने चाहिए। जिस प्रकार आठ नैरयिकों का कथन किया उसी प्रकार नौ नैरयिकों का भी कथन करना चाहिए। विशेष- एक-एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिए। शेषं सब कथन पूर्ववत् है जिसका अन्तिम भंग इस प्रकार हैअथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधः सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है। १ (५००५) ९२. इस नैरयिकों की विवक्षा प्र. भन्ते ! दस नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं यावत् अधः सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? उ. १-७. गांगेय ! वे दस नैरयिक जीव, रत्नप्रभा में भी उत्पन्न होते हैं यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में भी उत्पन्न होते हैं। २ अथवा एक रत्नप्रभा में और नौ शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार नी नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी से (त्रिकसंयोगी, चतु:संयोगी, पंचसंयोगी, षट्संयोगी) सप्तमसंयोगी पर्यन्त भंग कहे हैं उसी प्रकार दस नैरयिक जीवों के भी डिकसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी) भंग कहने चाहिए। विशेष- यहाँ एक-एक नैरधिक का अधिक संचार करना चाहिए। शेष सभी भंग पूर्ववत् जानने चाहिए। जिसका अन्तिम भंग इस प्रकार है अथवा चार रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधः सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है। (८००८) ९३. संख्यात नैरयिकों की विवक्षा प्र. भन्ते ! संख्यात नैरयिक जीव नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं यावत् अधः सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? उ. १-७. गांगेय ! संख्यात नैरयिक रत्नप्रभा में भी उत्पन्न होते हैं यावत् अधः सप्तमपृथ्वी में भी उत्पन्न होते हैं। (ये असंयोगी ७ भंग हैं।) (द्विसंयोगी २३१ भंग) १. अथवा एक रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं, १. एक संयोगी ७, द्विकसंयोगी १६८, त्रिकसंयोगी ९८०, चतुष्कसंयोगी १९६०, पंचसंयोगी १४७०, षट्संयोगी ३९२ और सप्तसंयोगी २८ ये सब मिलाकर ५००५ भंग हुए। २. इस प्रकार दस नैरयिकों के एक संयोगी ७, द्विकसंयोगी १८९, त्रिकसंयोगी १२६०, चतुष्कसंयोगी २९४०, पंचसंयोगी २४४६, षट्संयोगी ८८२ और सप्तसंयोगी ८४ भंग कुल ८००८ भंग होते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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