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वुक्कंति अध्ययन
एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा भाणियव्वा।
एवं सक्करप्पभाए वि। एवं जाव तमाए।
प. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव
असंखेज्जवित्थडेसु नरए किं सम्मदिट्ठी नेरइया उववज्जति? मिच्छादिट्ठी नेरइया उववज्जति,
सम्मामिच्छद्दिट्ठी नेरइया उववजंति? उ. गोयमा ! सम्मदिट्ठी नेरइया न उववज्जंति, मिच्छद्दिट्ठी
नेरइया उववजंति, सम्मामिच्छादिट्ठी नेरइया न उववति । एवं उव्वट्टति वि। अविरहिए जहेव रयणप्पभाए।
इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए। इसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के लिए भी जानना चाहिए। इसी प्रकार तमःप्रभापृथ्वी पर्यन्त भी तीनों आलापक कहने
चाहिए। प्र. भंते ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर यावत् असंख्यात
योजन विस्तार वाले नरकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं? मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं?
सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! (वहाँ) सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक
उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं।
एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा।
-विया. स. १३, उ. १, सु. १९-२७ ५५. नेरइयाणं समए-समए अवहीरमाणे वि अनवहरणत
परूवणंप. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया समए-समए
अवहीरमाणा-अवहीरमाणा केवइए कालेणं अवहिया सिया? उ. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा, समए-समए अवहीरमाणा
अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति,नो चेवणं अवहिया सिया।
एवं जाव अहेसत्तमाए। -जीवा. पडि.३, उ. २, सु.८६ (२) ५६. वेमाणियदेवाणं समए-समए अवहीरमाणे वि अनवहरणत
परूवणंप. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा समए समए
अवहीरमाणा-अवहीरमाणा केवइएणं कालेणं अवहिया
सिया? उ. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा, समए-समए अवहीरमाणा
अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेवणं अवहिया सिया जाव सहस्सारे।
इसी प्रकार उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए। रत्नप्रभापृथ्वी के समान यहाँ भी अविरहित आदि का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के
विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए। ५५. नैरयिकों का प्रतिसमय अपहरण करने पर भी अनवहरणत्व
का प्ररूपणप्र. भन्ते ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों का प्रत्येक समय में
एक-एक का अपहरण किया जाए तो कितने काल में वे
अपहृत हो सकते हैं? उ. गौतम ! वे नैरयिक असंख्यात हैं, यदि प्रत्येक समय उनका
अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों में अपहृत होंगे, किन्तु उनका अपहरण नहीं हुआ है।
इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त अपहार जानना चाहिए। ५६. वैमानिक देवों का प्रतिसमय अपहरण करने पर भी
अनपहरणत्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! सौधर्म-ईशानकल्प के देवों में से यदि प्रत्येक समय में
एक-एक का अपहरण किया जाये तो कितने काल में वे
अपहृत हो सकेंगे? उ. गौतम ! वे देव असंख्यात हैं, यदि प्रत्येक समय उनका
अपहरण किया जाये तो असंख्यात उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों में अपहृत होंगे, किन्तु उनका अपहरण नहीं हुआ है। उक्त कथन सहस्रार देवलोक पर्यन्त करना चाहिए।
आनतादि चार कल्पों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानों में से यदि प्रत्येक समय
में एक-एक अपहरण किया जाए तो कितने काल में वे अपहृत
हो सकेंगे? उ. गौतम ! वे असंख्यात हैं, यदि प्रत्येक समय में उनका अपहरण
किया जाए तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग में वे अपहृत होंगे, किन्तु उनका अपहरण नहीं हो सकता है।
आणयादिसु चउसु वि। प. गेवज्जेसु अणुत्तरेसु य समए-समए अवहीरमाणा
अवहीरमाणा केवइएणं कालेणं अवहिया सिया?
उ. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा, समए-समए अवहीरमाणा
अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागमेत्तेणं अवहीरंति, नो चेवणं अवहिया सिया।
-जीवा. पडि.३,उ.२, सु. २०१(ई)