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________________ वुक्कंति अध्ययन १४६९ किं पज्जत्तग-बादरपुढविकाइएसु उववज्जति? अग्नज्जत्तय-बादरपुढविकाइएसु उववज्जति? उ. गोयमा ! पज्जत्तएसु उववज्जति, नो अपज्जत्तएसु उववज्जति। एवं आउ-वणस्सइएसु विभाणियव्वं । पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइयाणं उव्वट्टणा सम्मुच्छिमवज्जा तहा भाणियव्वा। दं.३-११.एवं जाव थणियकुमारा। तो क्या (वे) पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम !(वे) पर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में जैसे नैरयिकों का उद्वर्तन कहा उसी प्रकार सम्मूर्छिम को छोड़कर उद्वर्तना कहनी चाहिए। दं. ३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त उद्वर्तना कहनी चाहिए। प्र. दं. १२. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव अनन्तर उवर्तन करके कहाँ जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम !(वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। देवों में भी उत्पन्न नहीं होते हैं। जैसे इनका उपपात कहा है वैसे ही उद्वर्तना भी कहनी चाहिए। प. दं. १२. पुढविकाइया णं भंते ! अणंतर उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जंति? किं नेरइएसु उववज्जति जाव देवेसु उववज्जति? उ. गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिय मणुस्सेसु उववज्जंति, नो देवेसु उववज्जंति। एवं जहा एएसिं चेव उववाओ तहा उव्वट्टणा वि भाणियव्या। -पण्ण.प.६,सु.६६८-६६९ प. सुहमपुढविकाइया णं भन्ते ! जीवा अणंतर उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति? किं नेरइएसु उववज्जति जाव देवेसु उववज्जति? प्र. भंते ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अनन्तर उद्वर्तन करके कहां जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वै नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। प्र. यदि तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? उ. गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जति, णो देवेसु उववज्जति। प. जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, किं एगिदिएसु उववज्जंति जाव पंचेंदिएसु उववज्जंति? उ. गोयमा ! एगिदिएसु उववज्जंति जाव पंचेंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, असंखेज्जवासाउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तएसु उववज्जति, मणुस्सेसु अकम्मभूमग-अंतरदीवग- असंखेज्जवासाउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तएसु उववति। -जीवा. पडि.१, सु.१३ (२२) प. सण्हपुढविकाइया णं भंते ! जीवा अणंतर उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उव्वति? किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववति ? उ. गौतम ! एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं यावत् पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। असंख्यात वर्षायुष्क को छोड़कर शेष पर्याप्त और अपर्याप्त में उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमिक, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्षायुष्क को छोड़कर शेष पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! इलक्ष्ण पृथ्वीकाय के जीव अनन्तर उद्वर्तन करके कहां जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं? . क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, उ. गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, १. विया.स.१९, उ.३,सु.१७
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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