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________________ १४६४ उ. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातंक थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय-पासपिछतरोरूपरिणए तल-जमल-जुयल परिघनिभ-बाहू चम्मेट्ठग-दुहण मुट्ठिय समाहय निचिय गत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघण-पवण जइण-वायाम-समत्थे छए दक्खे पत्तठे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए आउंटियं बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा बाहं आउंटेज्जा, द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! जैसे कोई बलवान्, युगोत्पन्न, वयप्राप्त, रोगातंक से रहित, स्थिर पंजा वाला, सुदृढ़-हाथ-पैर-पीठ उरू से युक्त, सहोत्पन्न युगल तालवृक्ष और अर्गला के समान दीर्घ सरल और पुष्ट बाहु वाला, चर्मेष्ट, धन-मुष्टिकाओं के प्रहार से जिसका शरीर सुघटित कर दिया हो और आत्मिक बल से युक्त, कूदने-फांदने चलने आदि में समर्थ, चतुर, दक्ष, तत्पर, कुशल, मेधावी, निपुण और शिल्पशास्त्र का ज्ञाता तरुण पुरुष अपनी संकुचित-बांह को शीघ्र फैलाए और फैलाई हुई बांह को संकुचित करे, खुली हुई मुट्ठी बंद करे और बंद मुट्ठी खोले, खुली हुई आँख बंद करे और बंद आंख खोले तो क्या उन जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय होता है? वित्थिण्णं वा मुट्ठिं साहरेज्जा, साहरियं वा मुट्ठि विक्विरेज्जा, उम्मिसियं वा अच्छिं निमिसेज्जा, निमिसियं वा अच्छिं उम्मिसेज्जा। भवेयारूवे? उ. गोयमा ! णो इणढे समठे। जीवा णं एगसमएण वा, दुसमएण वा, तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति, तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गई, तहा सीहे गइविसए पण्णत्ते। प. ते णं भन्ते ! जीवा कहं पर भवियाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! अज्झवसाणजोगनिव्वत्तिएणं करणोवाएणं, एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरेंति। प. तेसिणं भन्ते !जीवाणं कह गइ पवत्तइ? उ. गोयमा ! आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं एवं खलु तेसिं जीवाणं गई पवत्तइ। प. ते णं भन्ते ! जीवा किं आइड्ढीए उववज्जंति, परिड्ढीए उववजंति? उ. गोयमा ! आइड्ढीए उववजंति, नो परिड्ढीए उववज्जति। प. ते णं भन्ते ! जीवा किं आयकम्मुणा उववजंति, परकम्मुणा उववज्जति? उ. गोयमा ! आयकम्मणा उववजंति, नो परकम्मुणा उववज्जति। प. ते णं भन्ते ! जीवा किं आयप्पयोगेणं उववज्जंति, परप्पयोगेणं उववज्जति? उ. गोयमा ! आयप्पयोगेणं उववज्जति, नो परप्पयोगेणं उववज्जति। प. द.२-११. असुरकुमारा णं भन्ते ! कह उववजंति जाव परप्पयोगेणं उववज्जति? उ. गोयमा ! जहा नेरइया तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति। उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वे (नैरयिक) जीव एक समय की, दो समय की या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। उन नैरयिक जीवों की ऐसी शीघ्र गति है और इस प्रकार का शीघ्र गति का विषय कहा गया है। प्र. भंते ! वे नैरयिक जीव परभव की आयु कैसे बांधते हैं ? उ. गौतम ! वे जीव अपने अध्यवसाय योग से तथा कर्मबन्ध के हेतुओं द्वारा परभव की आयु बांधते हैं। प्र. भंते ! उन (नैरयिक) जीवों की गति किस कारण से प्रवृत्त ___ होती है? उ. गौतम ! आयु क्षय, भव क्षय और स्थिति क्षय होने पर उन जीवों में गति प्रवृत्त होती है। प्र. भंते ! वे (नैरयिक) जीव आत्म ऋद्धि (अपनी शक्ति) से उत्पन्न होते हैं या पर-ऋद्धि (दूसरों की शक्ति) से उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे आत्म ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं पर-ऋद्धि से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्र. भंते ! वे (नैरयिक) जीव स्वकृत कर्मों से उत्पन्न होते हैं या परकृत कर्मों से उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे स्वकृत कर्मों से उत्पन्न होते हैं परकृत कर्मों से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्र. भंते ! वे (नैरयिक) जीव अपने प्रयोग से (व्यापार) से उत्पन्न होते हैं या परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे अपने प्रयोग से उत्पन्न होते हैं परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्र. दं.२-११. भंते ! असुरकुमार कैसे उत्पन्न होते हैं यावत् क्या __ वे परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों की उत्पत्ति आदि के विषय में कहा उसी प्रकार आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं पर-प्रयोग से नहीं यहां तक कहना चाहिए। दं. १७.२४. इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। दं. १७-२४ एवं एगिंदियवज्जा जाव वेमाणिया। १. विया.स.१४,उ.१,सु.६
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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