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________________ १४१६ जहा पाउब्भवणा तहा दो वि आलावगा नेयव्वा। प. पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणे णं देविंदेणं देवरण्णो सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए? उ. हंता, गोयमा ! पभू, जहा पाउब्भवणा। प. अत्थि णं भंते ! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाई समुप्पज्जंति? उ. हंता,गोयमा ! अत्थि। प. से कहमिदाणिं भंते ! पकरेंति? उ. गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवइ ईसाणे णं देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवइ, इति भो ! सक्का! देविंदा ! देवराया ! दाहिणड्ढलोगाहिवई, इति भो ! ईसाणा ! देविंदा ! देवराया ! उत्तरडूढलोगाहिवई, इति भो ! ति ते अन्नमन्नस्स किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरंति।। प. अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जति? उ. हंता,गोयमा ! अत्थि। प. से कहमिदाणिं पकरेंति? उ. गोयमा ! ताहे चेव णं ते सक्कीसाणा देविंदा देवरायाणो सणंकुमारे देविंदे देवरायं मणसीकरेंति तए णं से सणंकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सक्कीसाणेहिं देविंदेहि देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउब्भवइ जे से वयइ तस्स आणाउववाय वयण निद्दे से चिट्ठति। -विया.स.३, उ.१,सु.५६-६१ ४६. सक्कस्स सुहम्मसभा इड्ढी य परूवणंप. कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं जाव बहुईओ जोयण कोड़ाकोडीओ उड्ढे दूरं वीईवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे कप्पे पण्णत्ते तस्स बहुमज्झदेसभाए पंच वडिंसया पण्णत्ता,तं जहा१. असोगवडेंसए, २. सत्तवण्णवडेंसए, ३. चंपगवडेंसए, ४. चूयवडेंसए, ५. मज्झे सोहम्मवडेंसए। । से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयाम विक्खंभेणं, द्रव्यानुयोग-(२) जिस प्रकार जाने के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं उसी प्रकार देखने के सम्बन्ध में भी दो आलापक कहने चाहिए। प्र. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप संलाप (बातचीत) करने में समर्थ है ? उ. हाँ, गौतम ! वह (आलाप संलाप करने में) समर्थ है, जाने के समान यहां भी दो आलापक कहने चाहिए। प्र. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर करने योग्य कोई कार्य होते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! होते हैं। प्र. भंते ! उस समय वे क्या करते हैं? उ. गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है तब वह (स्वयं) देवेन्द्र देवराज ईशान के पास जाता है। जब देवेन्द्र देवराज ईशान को कार्य होता है तब वह (स्वयं) देवेन्द्र देवराज शक्र के पास जाता है। और हे ! दक्षिणार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र! देवराज शक्र ! ऐसा है।' 'हे उत्तरार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान ! ऐसा है' इस प्रकार के शब्दों से परस्पर सम्बोधित करके वे एक दूसरे के प्रयोजनभूत कार्यों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। प्र. भंते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान इन दोनों के बीच में विवाद भी हो जाता है? उ. हाँ, गौतम ! (इन दोनों इन्द्रों के बीच विवाद भी) हो जाता है। प्र. भंते ! वे इस समय (समाधान) के लिए क्या करते हैं? उ. गौतम ! शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र में परस्पर विवाद उत्पन्न होने पर वे दोनों देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज का मन में स्मरण करते हैं तब देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के द्वारा मन में स्मरण किये गये देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के समक्ष प्रकट होते हैं और वह जो भी कहता है उसे ये दोनों इन्द्र मानते हैं तथा उसकी आज्ञा सेवा और निर्देश के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं। ४६. शक्र की सुधर्मा सभा और ऋद्धि का प्ररूपण प्र. भंते ! देवेन्द्र देवराज शक्र की सुधर्मा सभा कहाँ कही गई है? उ. गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् अनेक कोटाकोटी योजन दूर ऊँचाई में सौधर्म कल्प कहा गया है उसके बीचों-बीच पाँच प्रासादावतंसक कहे गए हैं, यथा १. अशोकावतंसक, २. सप्तपर्णावतंसक, ३. चंपकावतंसक, ४. आम्रावतंसक, ५. मध्य में सौधर्मावतंसक। वह सौधर्मावतसंक महाविमान लम्बाई और चौड़ाई से साढ़े बारह लाख योजन है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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