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________________ देव गति अध्ययन १४१५ ३. अर्हन्तों के केवलज्ञानोत्पत्ति महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर। इसी प्रकार सामानिक, त्रायस्त्रिंशक, लोकपाल देव, अग्रमहिषी देवियाँ, सभासद, सेनापति तथा आत्मरक्षक देव इन चार कारणों से तत्क्षण मनुष्य लोक में आते हैं, यथा१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञानोत्पत्ति महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर। ३. अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, ४. अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु। एवं सामाणिया, तायत्तीसगा, लोगपालदेवा, अग्गमहिसीओ देवीओ, परिसोववण्णगा देवा, अणियाहिवई देवा, आयरक्खदेवा माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति,तं जहा१. अरहंतेहिं जायमाणेहिं, २. अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, ३. अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, ४. अरंहताणं परिनिव्वाणमहिमासु। -ठाणं. अ.४, उ.३, सु.३२४ (३-४) ४३. देवलोगेसु अंधकार कारण परूवणं चउहि ठाणेहिं देवंधगारे सिया,तं जहा१. अरहतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं, २. अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, ३. पुव्वगए वोच्छिज्जमाणे, ४. जायतेजे वोच्छिज्जमाणे। -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२४ ४४. देवलोगेसु उज्जोयकारण परूवणं चउहि ठाणेहिं देवुज्जोए सिया,तं जहा१. अरहंतेहिं जायमाणेहिं, २. अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, ३. अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु,' ४. अरहताणं परिणिव्वाणमहिमासुरे। -ठाणं.अ.४, उ.३,सु.३२४ ४५. सक्कईसाणिंदाणं परोप्परं ववहाराइ परूवणंप. पभू णं भंते ! सक्के देविंद देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवित्तए? उ. हंता, गोयमा ! पभू। प. से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढायमाणे पभू? ४३. देवलोक में अंधकार के कारणों का प्ररूपण चार कारणों से देवलोक में अन्धकार होता है, यथा१. अर्हन्तों के व्युच्छिन्न होने पर, २. अर्हन्त-प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने पर, ३. पूर्वगत के व्युच्छिन्न होने पर, ४. अग्नि के व्युच्छिन्न होने पर। ४४. देवलोक में उद्योत के कारणों का प्ररूपण चार कारणों से देवलोक में उद्योत होता है, यथा१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण महोत्सव पर। उ. गोयमा ! आढायमाणे पभू, नो अणाढायमाणे पभू। प. पभू णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवित्तए? उ. हंता, गोयमा ! पभू। प. से भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढायमाणे पभू? ४५. शक्र और ईशानेन्द्र के परस्पर व्यवहारादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र देवेन्द्र देवराज ईशान के पास जाने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम !(शक्रेन्द्र ईशानेन्द्र के पास जाने में) समर्थ है। प्र. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है या अनादर करता हुआ जाता है? उ. गौतम ! वह (ईशानेन्द्र का) आदर करता हुआ जाता है किन्तु अनादर करता हुआ नहीं जाता है। प्र. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान, क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के पास ___जाने में समर्थ है ? उ. हाँ, गौतम ! (ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र के पास जाने में) समर्थ है। प्र. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है या अनादर करता ___ हुआ जाता है? उ. गौतम ! वह आदर करता हुआ भी जाता है और अनादर करता हुआ भी जाता है। प्र. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र देवेन्द्र देवराज ईशान के समक्ष ___ सभी ओर से देखने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! समर्थ है। उ. गोयमा ! आढायमाणे विपभू, अणाढायमाणे वि पभू। प. पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोएत्तए? उ. हंता, गोयमा ! पभू। १. ठाणं. अ.३, उ.१,सु. १४२ २. ठाणं. अ.३, उ.१,सु. १४२
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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