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________________ ( १३८६ ___३७. देवगई-अज्झयणं द्रव्यानुयोग-(२) ३७. देवगति अध्ययन सूत्र सूत्र १. देव सद्देण अभिहीय भवियदव्वदेवाई पंच भेया तेसिं लक्खणाणि - प. कइविहा णं भंते ! देवा पन्नत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा देवा पन्नत्ता,तं जहा १. भवियदव्वदेवा, २. नरदेवा, ३. धम्मदेवा, ४. देवाहिदेवा, ५. भावदेवा। प. १. से केणतुणं भंते ! एवं कुच्चइ 'भवियदव्वदेवा, भवियदव्वदेवा?' उ. गोयमा ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए वा, मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'भवियदव्वदेवा भवियदव्वदेवा।' प. २.से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ-'नरदेवा, नरदेवा"? उ. गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंत चक्कवट्टी उप्पन्न समत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहिपतिणो, समिद्धकोसा, बत्तीसरायवरसहस्साणुयातमग्गा सायरवरमेलाहिपतिणो मणुस्सिंदा। १. देव शब्द से अभिहित भव्यद्रव्यदेवादि के पांच भेद और उनके लक्षणप्र. भंते ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! देव पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. भव्यद्रव्यदेव, २. नरदेव, ३. धर्मदेव, ४. देवाधिदेव, . ५. भावदेव। प्र. १. भंते ! भव्यद्रव्यदेव किस कारण से भव्यद्रव्यदेव कहलाते हैं? उ. गौतम ! जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक या मनुष्य देवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, इस कारण से गौतम ! वे भव्यद्रव्यदेव-भव्यद्रव्यदेव कहलाते हैं। प्र. २. भंते ! नरदेव किस कारण से नरदेव कहलाते हैं ? उ. गौतम ! जो ये राजा चातुरन्तचक्रवर्ती (पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में समुद्र और उत्तर में हिमवान् पर्वत पर्यन्त, षट्खण्डभरत क्षेत्र के स्वामी) हैं, जिनके यहाँ समस्त रत्नों में प्रधान चक्ररल उत्पन्न हुआ है, जो नौ निधियों के अधिपति हैं, जिनके कोष समृद्ध हैं, बत्तीस हजार राजा जिनके मार्गानुसारी (अधीन) हैं, महासागर रूप श्रेष्ठ मेखला पर्यन्त पृथ्वी के अधिपति हैं और मनुष्यों में इन्द्र के समान हैं। इस कारण से गौतम ! वे नरदेव-नरदेव कहलाते हैं। प्र. ३. धर्मदेव किस कारण से धर्मदेव कहलाते हैं ? उ. गौतम ! ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार भगवन्त हैं। इस कारण से गौतम ! वे धर्मदेव-धर्मदेव कहलाते हैं। प्र. ४. भंते ! देवाधिदेव किस कारण से देवाधिदेव कहलाते हैं ? से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'नरदेवा, नरदेवा'। प. ३. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'धम्मदेवा, धम्मदेवा?' उ. गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंता इरियासमिया जाव गुत्तबंभचारी, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'धम्मदेवा, धम्मदेवा।' प. ४. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ-“देवाहिदेवा, . देवाहिदेवा?" उ. गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता उप्पन्ननाण- दंसणधरा जाव सव्वदरिसी, से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-“देवाहिदेवा, देवाहिदेवा।" प.. ५. से केणद्वेणं भले ! एवं वुच्चइ-"भावदेवा, भावदेवा?" उ. गोयमा ! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा देवगतिनाम-गोयाई कम्माई वेदेति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"भावदेवा, भावदेवा" -विया. स. १२, उ.९, सु.१-६ उ. गौतम ! जो अरिहन्त भगवन्त उत्पन्न केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक यावत् सर्वदर्शी हैं। इस कारण से गौतम ! वे देवाधिदेव-देवाधिदेव कहलाते हैं। प्र. ५. भंते ! भावदेव किस कारण से भावदेव कहलाते हैं? उ. गौतम ! ये भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव हैं जो देवगति नामकर्म एवं गोत्रकर्म का वेदन कर रहे हैं। इस कारण से गौतम ! वे भावदेव-भावदेव कहलाते हैं। १. ठाणं अ.५,उ.१,सु.४०९/२
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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