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________________ तिर्यञ्च गति अध्ययन १२८९ तिण्णि लेसाओ सव्वत्थ वि छव्वीसं भंगा। सभी की तीन लेश्याएँ और उनके छब्बीस भंग जानने चाहिए। सेसंतं चेव। -विया. स. २१, व.४, सु.१ शेष सब कथन पूर्ववत् है। ४२. उक्खु-उक्खुवाडियाईणं मूल-कंदाइजीवेसु उववायाइ ४२. इक्ष-इक्षुवाटिका आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का परूवणं प्ररूपणप. अह भंते ! उक्खु-उक्खुवाडिया-वीरण-इक्कड-भमास- प्र. भन्ते ! इक्षु, इक्षुवाटिका, वीरण, इक्कड, भमास, सुंठि, शर, सुंठि-सर-वेत्त-तिमिरसतवोरग-नलाणं एएसिणं जे जीवा वेत्र (बेंत) तिमिर सतबोरग (शतपर्वक) और नल, इन सब मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो वनस्पतियों के मूल रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो यंते ! वे उववज्जति? कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गोयमा ! एवं जहेव वंसवग्गो तहेव एत्थ वि मूलाईया दस उ. गौतम ! जिस प्रकार वंशवर्ग के मूलादि दस उद्देशक हे हैं, उद्देसगा भाणियव्या। उसी प्रकार यहां भी दस उद्देशक कहने चाहिए। णवरं-खंधुद्देसे देवो उववज्जति। चत्तारि लेसाओ। विशेष-स्कन्धुदेशक में देव भी उत्पन्न होते हैं, उनमें चार लेश्याएँ होती हैं। सेसंतं चेव। -विया. स. २१, व. ५, सु.१ शेष सब कथन पूर्ववत् है। ४३. सेडिय-भंतियाईणं मूल-कंदाईजीवेसु उववायाइ परूवणं- ४३. सेडिय भंतियादि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप. अह भंते ! सेडिय-भंतिय-कोतिय-दब्भ-कुस-पव्वग- प्र. भन्ते ! सेडिय, भंतिय, कौन्तिय, दर्भ-कुश, पर्वक, पोदेइल, पोदइल-अज्जुण-आसाढग-सरोहियंस मुतव-खीर (पोदीना) अर्जुन, आषाढक, रोहितक (रोहितांश) मुतव, भुस-एरंड-कुरू कुंद करकर सुंठ-विभंगु-महुरयण खीर, भुस, एरण्ड, कुरूकुन्द, करकर, सुंठ, विभंगु, थुरग-सिप्पिय-सुंकलितणाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए मधुरयण, धुरग, शिल्पिक और सुंकलितृण इन सब वक्कमति ते णं भंते !जीवा कओहिंतो उववज्जंति? वनस्पतियों के मूलरूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते ! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गोयमा ! एत्थ वि दस उदेसगा निरवसेसं भाणियव्या उ. गौतम ! यहाँ भी वंशवर्ग के समान समग्र मूलादि दस उद्देशक जहेव वंसवग्गो। -विया. स. २१, व.६, सु.१ ___ कहने चाहिए। ४४. अब्भरुहाईणं मूल-कंदाइजीवेसु उववायाइ परूवणं ४४. अभ्ररुहादि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप. अह भंते ! अब्भरुह-वायाण-हरितग-तंदुलेज्जग- प्र. भन्ते ! अभ्ररुह, वायाण, हरीतक (हरड़) तंदुलेयक तण-वत्थुल-बोरग मज्जार पाइ-विल्लि पालक्क (चंदलिया) तृण, वत्थुल (बथुआ) बोरक (बेर) मारिंक, दगपिप्पलिय-दव्वि-सोस्थिक-सायमंडुक्कि मूलग सरिसव पाई-बिल्ली (चिल्ली) पालक, दगपिप्पली, दर्वी, स्वस्तिक अंबिल साग जियंतगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए शाकमण्डकी, मूलक, सर्षप (सरसों) अम्बिलशाक, वक्कमंति ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जति? जीवयन्तक (जीवन्तक) इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, तो भंते ! वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गोयमा ! एत्थ वि दस उद्देसगा भाणियव्या जहेव उ. गौतम ! यहां भी वंशवर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने सवग्गो। -विया. स. २१, व.७, सु. १ __ चाहिए। ४५. तुलसिआईणं मूलकंदाइजीवेसु उववायाइ परूवणं ४५. तुलसी आदि के मूल कन्दादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप. अह भंते ! तुलसी-कण्हदराल-फणेज्जा-अज्जा- भूयणा- प्र. भन्ते ! तुलसी, कृष्णदराल, फणेज्जा, अज्जा, भूयणा, चोरा, चोरा-जीरा-दमणा-मरुया इंदीवर-सयपुप्फाणं, एएसि णं जीरा, दमणा, मरुया इन्दीवर और शतपुष्प इन सबके मूल के जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कओहितो रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते ! वे कहाँ से आकर उववज्जति? उत्पन्न होते हैं? उ. गोयमा ! एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा वंसाणं। उ. गौतम ! वंशवर्ग के समान यहां भी समग्र रूप से मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। एवं एएसु अट्ठसु वग्गेसु असीति उद्देसगा भवंति।" इस प्रकार इन आठ वर्गों के अस्सी उद्देशक होते हैं। -विया.स.२१, व.८, सु.१ १ १. सालि २. कल ३. अयसि ४. वंसे ५. उक्खू ६. दम य ७. अब्भ ८. तुलसी य। अद्वैते दसवग्गा असीति पुण होंति उद्देसा ॥ -विया. स. २१, व. १-८, गा.१
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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